गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

इलाहाबाद के अमरुद

अमे यार इलाहाबाद के अमरुद की बहुत याद आय रही है, यह समय बागिन में अमरुद खाय लायक होई गा होइहैं। रामबाग में जब हम लोग सनीमा देखै जात रहे ललका अमरुद खाए का आनंद आवत रहा। हियाँ ससुर दुई साल होई गा इलाहाबाद के अमरुद का दर्शन नहीं कई पावा। बरेली आई के जिनगी क बहुत अनमोल यादिन सतावत थीन। एही बार माघमेला में चांस लगाई के कौनिउ सूरत में इलाहाबाद पहुंचे का है.....संगम की रेती का मजा और अमरुद का स्वाद बहुत याद आवत अहै....

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

मुझे शर्म नहीं आती....


मेरे गांव में एक कहावत कही जाती है,सौ सौ जूता खाय तमाशा घुस के देखयये कहवत उन लोगों के लिए कही जाती है जो बेशर्मियत के चुल्लू में परिवार रिश्तेदार  सहित नहाते हैं और बगैर डूबे वापस निकल आते हैं...इन लोगों को देखकर मुझे शर्म नहीं आतीहां मुझे बिलकुल भी शर्म नहीं आती...और शर्म न आने की सबसे बड़ी वजह है मेरा देश...भारत हिंदुस्तान आर्यावर्त और इंडिया के अलावा इस देश का एक और नाम है और वो नाम है घोटालिस्तान...इस घोटालिस्तान में ऐसे ऐसे घोटालाबाज पैदा हुए हैं,जिन्होंने हरामखोरियत की पराकाष्ठा पर जमकर चहलकदमी की है...
इस देश ने एक तरफ जहां ददुआ,ठोकिया,विरप्पन,दाउद,छोटा राजन और सलेम जैसे आंख के तारे पैदा किए हैं तो दूसरी तरफ ए.राजा,अशोक चव्हाण.लालू यादव,मायावती जैसे नेता भी पैदा किए हैं जो देश के दिल में पेसमेकर बने बैठे हैं,और देश की धड़कन को कंट्रोल कर रहें हैं...अब इतने महान लोगों को शर्म नहीं आती तो इन्हें देखकर मुझे भी शर्म नहीं आती...जब गरीबों के हक की भूख बाजार में नीलाम करने वाले सौदागरों को शरम नहीं आती... जब गरीबों क अनाज को घोटालेबाजों ने अपना निवाला बना लिया....जो अनाज पीडीएस के जरिए गरीबों में बांटने के लिए भेजा गया था उसे घोटालेबाजों ने बांग्लादेश और नेपाल में बेच दिया...जो अनाज फूड फॉर वर्क के तहत गरीबों का पेट भरने के लिए था उसे उत्तर प्रदेश के नेता, बाबू मिलकर गटक गए....जब उन्हें शर्म नहीं आई तो मुझे शर्म क्यों आएगी...जब महाराष्ट्र सरकार के भ्रष्ट नेताओं को शर्म नहीं आई जिन्होंने देश पर प्राण त्याग देने वाले शहीदों के हक पर अपनी बपौती बना ली, जब उन्हें शर्म नहीं आई तो मुझे शर्म क्यों आएगी... महाराष्ट्र सरकार के भ्रष्ट नेताओं ने कारगिल युद्ध में शहीद हुए जवानों को इस घोटाले की मार्फत अपने खास अंदाज में श्रद्धांजलि दी है। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, खाद्यान्न घोटाला और राष्ट्रमंडल खेल घोटाला तो वर्तमान यूपीए सरकार की उपलब्धियों में शुमार हैं ही,इसके अलावा पिछले एक दशक में हमने प्रसिद्ध केतन पारिख घोटाले, मधु कोड़ा घोटाले, चारा घोटाले, आईपीएल घोटाले, सीडब्ल्यूजी घोटाले से दो चार हुए हैं...इन घोटालों में इतने रुपयों का हेर फेर हुआ है कि मैं गिनती नहीं लिख सकता...या यूं कहें कि मेरी गणित इतनी कमजोर है कि मैं हेजीटेट हो रहा हूं लिखने में कि कहीं एकाद शून्य कम न लिख दूं...
मौजूदा दौर को देखकर ऐसा कहा जा सकता है कि नैतिकता ताक पर रख दी गई है। इस वक्त जो नैतिकता पर हावी है या फिर कहे की शक्तिमान है थ्री-पी (3P) यानी पॉवर, पैसा और पॉलिटिक्स। वर्तमान समय में थ्री-पी शक्तिशाली है, ऐसे में जनसरोकार की बाते बेईमानी और बौनी नजर आती है। जो शक्तिशाली होता है वही इतिहास लिखता है और नायक, नायिका और खलनायक वही तय करता है। इसलिए सर्वमान्य नायकों-नायिकाओं की तलाश इतिहास में नहीं करनी चाहिए। लेकिन देश में भ्रष्टाचार का जो आलम है ऐसे वक्त में जेपी (जय प्रकाश नारायण) की याद आती है। 1977 में सत्ता के खिलाफ चलाया गया आंदोलन सिर्फ इमरजेंसी के खिलाफ ही नहीं था, बल्कि इस आंदोलन को जनता का जनसमर्थन मिला क्योंकि यह आंदोलन सत्ता में मौजूद भ्रष्टाचार के खिलाफ भी था।
थोड़ा बोरिंग लगेगा लेकिन एक नजर आजादी के बाद से अबतक के बड़े घोटालों पर डाल लेते हैं- जीप घोटाला (1948), साइकिल आयात घोटाला (1951), मुंध्रा मैस (1957-58), तेजा लोन (1960), पटनायक मामला (1965), नागरावाला घोटाला (1971), मारूति घोटाला (1976), कुओ ऑयल डील (1976), अंतुले ट्रस्ट (1981), एचडीडब्ल्यू सबमरीन घोटाला (1987), बिटुमेन घोटाला, तांसी भूमि घोटाला, सेंट किट्स केस (1989), अनंतनाग ट्रांसपोर्ट सब्सिडी स्कैम, चुरहट लॉटरी स्कैम, बोफोर्स घोटाला (1986), एयरबस स्कैंडल (1990), इंडियन बैंक घोटाला (1992), हर्षद मेहता घोटाला (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), जैन (हवाला) डायरी कांड (1993), चीनी आयात (1994), बैंगलोर-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर (1995), जेएमएम सांसद घूसकांड (1995 ), यूरिया घोटाला (1996), संचार घोटाला (1996), चारा घोटाला (1996), यूरिया (1996), लखुभाई पाठक पेपर स्कैम (1996), ताबूत घोटाला (1999) मैच फिक्सिंग (2000), यूटीआई घोटाला, केतन पारेख कांड (2001), बराक मिसाइल डील, तहलका स्कैंडल (2001), होम ट्रेड घोटाला (2002), तेलगी स्टाम्प स्कैंडल (2003), तेल के बदले अनाज कार्यक्रम ( 2005), कैश फॉर वोट स्कैंडल (2008), सत्यम घोटाला (2008),मधुकोड़ा मामला (2008), आदर्श सोसाइटी मामला (2010), कॉमनवेल्थ घोटाला (2010), 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला।          

कभी बाबूओं, नेताओं और कारोबारियों की तिकड़ी गरीबों का हजारों टन अनाज सालों तक उड़ाती रहती है और किसी को भनक तक नहीं लगती. तो कभी अनाज से भरे गोदाम के गोदाम सड़ जाते हैं और किसी को फिक्र नहीं होती... इतना कुछ कहने के बाद अब तो आप समझ ही गए होंगे कि मुझे शर्म क्यों नहीं आती...मुझे आती है सिर्फ एक सोच, जो विवश करती है ये बात सोचने पर कि आखिर क्यों हमारा देश गरीब है...
आपका बेशर्म...।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

तेलंगों का बहुमत



हमारे बूढ़े बुजुर्ग कहा करते थे बड़ाई से डरना चाहिए और किसी के मुंह पर उसकी बड़ाई कदापि न करनी चाहिए, लेकिन आज सब कुछ उलट हो रहा है। बड़ी बड़ी सभाओँ में नेतागणों के अनुज उनके बड़प्पन के बोल गा रहे है, इसके लिए इलाहाबादियों के पास एक स्पेशल शब्द है। चेलागिरी करने वालों को हम इलाहाबादी तेलंग कहते हैं, उसके इस गुण को तेल्लई कहते हैं जिसका मतलब है तेल लगाना। तेल लगाने से तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति का प्रिय बनने की कोशिश में उसकी तारीफों के पुल बांधे जाएं और वो भी बिना सपोर्ट के (इससे ढहने में आसानी रहती है)।
पैदावार बढ़ रही हैः आज तेलंग लोगों की पूरी एक फौज खड़ी हो गई है। जिधर देखो तेलंग पैदा हो रहे हैं, एक लहलहाती फसल खड़ी है, पककर कटने को तैयार, गोदामों में नहीं यह सीधे दिमाग में घुसने को तैयार है। कोई फेसबुक पर तेल लगा रहा है, कोई ट्विटर पर, कोई फोनय पर ठोंके पड़ा है, सब तेल लगाने में तल्लीन हैं। हर कोई इस गुण को अपने में उत्पन्न करना चाहता है और इसकी पैदाइश के बाद इसकी संभाल ऐसे करने में लगा है जैसे नवजात शिशु की देखभाल की जाती है।
बंधुआ तेलंगः जब हम विश्वविद्यालय में पढ़ा करते थे तो वहां शोधार्थियों से बातों ही बातों में पचा चला कि ये लोग शोध कम करते हैं, तेल्लई ज्यादा करना पड़ता है और इनके गाइड प्रोफेसर्स ने इन्हे बंधुआ तेलंग बना रखा है। वे उनके घरों में सब्जी लातें हैं, बच्चों को ट्यूशन देते हैं, कुछ तो स्कूल भी छोड़ने जाते हैं। ऐसे ही ढेर सारे काम ये लोग अपने गाइड्स के घरों के किया करते थे। यह सब कुछ जानकर बड़ा अटपटा सा लगा। ऐसे बंधुआ तेलंग आपको हर जगह मिलेंगे, सरकारी दफ्तरों, निजी संस्थानों, हर जगह। सरजी की हां में हां मिलाना और सबके सामने सरजी के कारनामों की प्रस्तुति देना इनके कर्तव्य और विशेषाधिकार हैं।
तेंलग नहीं हिजड़े हैः दरअसल जो लोग अपनी इच्छा से तेल्लई का काम नहीं कर रहे, वे तेलंग कम हिजड़े ज्यादा है। इन्हें अपने ऊपर जरा भी विश्वास नहीं होता, अपने काम पर ये भरोसा नहीं करते, तो तेल्लई का माध्यम चुनते हैं कि किसी तरह लक्ष्य की प्राप्ति हो जाए, और एक बार इस तरीके से मिला लक्ष्य इनके तेल्लई को जगा देता है और नशए की तरह लहूं में समा जाता है और ऐसे लोग इसी खुशफहमी में लीन रहते है कि तेल्लई ही हर मर्ज की दवा है, ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा होने के कारण आज बहुमत भी तेल्लई का ही है।
जय हो तेलंगों की।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

दूसरे के हिस्से से सेहत नहीं बनती


जब किसी इंसान को डायबीटीज हो जाती है, तो यही कहता घूमता हैः भाई एड्स हो जाए, कैंसर हो जाए मगर डायबीटीज न हो। सबको पता है कि डायबीटीज क्यों होती है-ज्यादा मिठाई खाने से। कुछ यही हालत अपने इंडिया की भी है (भारत की इसलिए नहीं क्योंकि उसका सपना तो बापू ने देखा था)। सारे के सारे मिठाई खाने में जुटे हैं और खिलानेवाले भी बड़े चाव से खिलाते हैं। फर्क बस इतना है कि किसी को बूंदी का लड्डू मिलता है तो किसी के हिस्से में पेड़ा आता है और जनाब ये मिठाई किसी हलवाई की दुकान पर नहीं मिलती। इसकी पैदाइश तो आरबीआई के घर होती है, लेकिन खाने-खिलाने वाले मौका हाथ लगते ही इसे मिठाई के डिब्बे में बंद कर लेते हैं और बना लिया रिश्वत की मिठाई।

हमारे यहां यह मिठाई खाने का बड़ा चलन है। लालू ने चारा मिठाई खाई, लोग कहते हैं राजीव के जमाने में बहुत लोगों ने बोफोर्स वाली मुठाई खाई, फिर तहलका मिठाई आई, ये सब मिठाइयां तो बड़े लोगों के लिए बनीं थीं। आजकल बहुत लोग कॉमनवेल्थ मिठाई खा रहे हैं। कलमाड़ी भैया तो वर्ल्ड फेम हो गए हैं, मिठाई खाने में। इसा खाने पीने की आदत में किसी को पेट की याद न आई, बेचारा पेट, कितना पचाये, आप तो ठूसे पड़े हैं, लेकिन एक हद होती है मालिक किसी चीज की। पेट कब जवाब दे जाए, कुछ पता नहीं।
हमारे यहां कॉमनवेल्थ शुरू होने में महज कुछ दिन बाकी हैं, कॉमनवेल्थ की मिठाई खाने वालों की बीमारी के बारे में मीडिया ने सारे देश को बताया, बड़ी किरकिरी हुई, फिर सोचा गया इ सब ब्रत रख लेंगे, लेकिन मजाल भैया कि एको दिन मिठाई खाने में नागा हो जाए। बिल्डिंग बनी तो एक उसमें चौड़ाई थोड़ा घटाय के मिठाई मंगवाय लिया, स्टेडिय़म मा घटिया वाली माटी डरनवाएन, जलेबी आई गई। लेकिन मिठाई खाने वाले शायद भूल रहे हैं, कि अगर इसी तरह खाए तो पेट तो जाएगी ही, नाक भी कट जाएगी। ये लोग शायद बीजिंग ओलंपिक भूल रहे हैं। सब की आंखे फटी की फटी रह गईं थीं, चीन की तैयारी और मेहमाननवाजी देखकर, हमारे इहां शायद आंखी न फटे और सब फटी जाए। बर्ड नेस्ट स्टेडियम की तस्वीरे आज भी लोगों के जेहन में ताजा हैं। लेकिन कलमाड़ी जैसे मिठाई प्रेमी भूल गए हैं, इसीलिए तो खाए पड़े हैं, लेकिन अक्टूबर के पहिले हफ्ते में जब थू थू होने लगेगी, तो समझ में आ जाएगा, कि दूसरे का हिस्सा खाने से सेहत नहीं बनती।

रविवार, 22 अगस्त 2010

जूते का सम्मान करो पार्ट 2

हां भाई! हम भी तो यही कह रहें हैं कि जूतों का सम्मान करो, क्यों की जूते का सम्मान तो आदि अनंत काल से होता आ रहा है,फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जूते को खड़ाउं या चरण पादुका कहा जाता था और आज चरण पादुका ने जूते की शक्ल ले ली है...। आपको याद होगा भरत ने श्री राम चंद्र का जूता मतलब चरण पादुका माथे पर लगा कर लाए थे और अयोध्या के सिंहासन पर रख दिया था..उस वक्त जूते की ही औकात से पूरा राज्य चलता था।
 जमाने ने रंगत बदली तो जूते की औकात में भी बदलाव आया, अनायास ही नहीं है कि हिंदुओं के विवाह संस्कार में जूते चुराने की रस्म को खास तवज्जो दिया गया है, जिसकी शादी में सालियां जूते न चुराएं,तो उस इंसान की सारी जिंदगी इस टीस में गुज़र जाती है कि काश मेरा भी जूता चोरी हुआ होता। जूते की औकात को हिंदी साहित्य ने भी बाखूब पहचाना यही वजह थी कि मुंशी प्रेमचंद्र ने भी अपनी एक कहानी में बताया कि एक आदमी को जूता किस हद तक परेशान कर सकता है,कहानी का थोड़ा सा जिक्र करता हूं, “एक गरीब आदमी रहता है उसके पास एक ही जूता होता है,जूता रोज कहीं न कहीं से फट जाता है,गरीब आदमी जो भी थोड़े बहुत रुपए कमाता है वो जूते सिलाने में ही खर्च हो जाते हैं,एक दिन आदमी झल्ला जाता है और सोचता है साला जूता है कि बवाल...और और जूते को घर के बाहर फेंकता है,संयोग की बात कि जूता बाहर जा रहे एक आदमी को लगता है और वो आदमी वहीं मर जाता है.. “लो भइया करने चले थे होम मगर हाथ जल गए” जूते की इज्ज़त नहीं की उसने, जूते ने लंका लगा कर रख दी, न घर का छोड़ा न घाट का।

जूते से सिर्फ साहित्य ही नहीं फिल्म जगत भी काफी आकर्षित रहा है । याद कीजिए राजकपूर का जूता, “मेरा जूता है जापानी वाला” या फिर हम आपके हैं कौन का, “जूते दे दो पैसे ले लो वाला गीत” ।

कहने का मतलब ये है कि जूता की अहमियत को हर किसी ने पहचाना हैं गंवई परिवेश में तो जूते ने न जाने कितने आई.ए.एस, पी.सी.एस बना दिए,अगर बच्चा स्कूल न जाए तो अभिभावक बच्चे को रौबीले अंदाज़ में कहता है “चुपचाप चले जाव स्कूल नहीं तव उतारा जूता न” जूते का दम तो देखिए बच्चा खट से स्कूल के लिए तैयार हो जाता है। लोफर लफंगे लड़कों के लिए गांव के बड़े बुज़ुर्गों के मुंह से अक्सर सुनने को मिलता है “फलाने के लउंडा बहुत उड़त है, आपा मा नहीं आय, भिगाय के बीस जूता परय तव अपने आप मियान मां आय जाय, साथ बैठे दूसरे चाचा कहेंगे अच्छा भिगोवा जूता होय सारे के बरे” मतलब साफ है कि जूता हमेशा से समाज सुधारक का काम करता आया है,लोगों ने इसके महत्व को समझा भी है ये नेता ही मुई ऐसी जात है जिसके भेजे में बात घुसती नहीं हैं...प्रभु संकेत दे रहें हैं बार बार कभी चिदंबरम के बगल से गुज़रे तो कभी उमर अब्दुल्ला के ऊपर से। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि जब जब धर्म की हानि होगी तब तब मैं किसी न किसी रुप में पृथ्वी पर अवतार लूंगा....हो न हो कलयुग में भगवान कहीं जूते के रुप में तो नहीं.....

शनिवार, 21 अगस्त 2010

जूते का भी सम्मान करो


15 अगस्त को एक बार फिर जूते की गूंज सुनाई दी। इस बार मारने वाला एक आम आदमी नहीं था, वो एक सरकारी नुमाइंदा था, लेकिन उसका निशाना एक राजनैतिक व्यक्तित्व पर था। उमर अब्दुल्ला पर जूता पड़ा तो नहीं, लेकिन राष्ट्रगान की सावधानी के बीच उन्हें इस बात का आभास हो गया था, कि जूते का राहु उनके सिर से होकर गुजर गया है, इसीलिए राज्य को संबोधित करते हुए जनता के दिल तक इसी जूते के सहारे पहुंचने की कोशिश की। बोले कि अगर हाथ में पत्थर के बजाय जूते ही आ जाएं, तो विरोध का यह तरीका ज्यादा अच्छा होगा। जूता फेंकने वाले उस हेड कांस्टेबल को उमर ने माफ भी कर दिया।
जार्ज डब्ल्यू बुश और मुंतजर अल जैदी से शुरू हुआः यह जूते सिर का खेल बीच में बड़ा लोकप्रिय हुआ। भारत में भी कई लोगों ने जूतमपैजार करने की कोशिश की और सोचा कि वे भी मुंतजर की तरह महान हो जाएंगे, अहा दुर्भाग्य ऐसा हो न सका। ये एक सिलसिला शुरू हुआ तो इस पर लेख भी लिखे गए और बड़ी मंत्रणाएं हुईं इस जूते पर। गोष्ठियां की गईं और धीरे धीरे जूता विरोध जताने का प्रतीक बनता जा रहा है। जैसे पहले किसी सभा या फैसले के विरोध में लोग काली पट्टी बांधकर जाते थे, अब ठीक उसी तरह जूता लेकर सामने आने लगे हैं। आगे चलकर हो सकता है ये जूता, झंडे की भी जगह हड़प ले, क्योंकि मुझे तो इसमें झंडे के भी गुण नजर आ रहे हैं। मसलनः उग्र विरोध के लिए काला जूता फेंको, शांत विरोध के लिए सफेद जूता फेंको और दिखाओ।
यह विरोधी जूता व्यापार के नए पट भी खोल सकता है। इस पर नए तरीके के रिसर्च हो सकते हैं- ज्यादा मारक क्षमता वाला जूता, हवा से हवा में वार करने वाला जूता, सीधे सिर पर वार करने वाला जूता, जमीन से खोपड़ी औरप हवा से खोपड़ी पर वार करने वाला जूता। मतलब कि इस जूते पर प्रक्षेपास्त्रों की तरह प्रयोग किए जा सकते हैं।
कल को हो सकता हैः जूते के निशान वाली एक बड़ी विरोधी पार्टी खड़ी हो जाए, जो एक सशक्त विपक्षी का किरदार निभाए। किसी भी विधेयक के विरोध मेः ले जूता, ले जूता, वोट नहीं जूतै जूता। और क्या पता भाई, जनता का दिल इस जूते वाली पार्टी पर आ जाए और धीरे धीरे कई देशों में ये जूते वाले लोग राज्य करने लगें, इसीलिए कहता हूं जूते का भी सम्मान करना सीखो।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

दारू का प्रपंचः ड्रिंकिंग यस ऑर नो

दारू के बारे में कई कहावतें मशहूर है और कई किस्से सुने जाते हैं. सुना है कि वैदिक काल में इसे सोमरस नाम से जाना जाता था और जश्न मनाते वक्त इसका जमकर

दोहन होता था। दीरू की लत जिसे लग जाए, वो अपना घरबार तक बेच देता है। वैसे अभी तक दारू से मेरा नैन मटक्का वाला नाता रहा है। इस अंगूर की बेटी के मुहब्बत में कइयों की बरबादी के किस्से सुने हैं। हर गली मुहल्ले में इसका एक वर्ल्ड फेमस आशिक होता है। लोग दारू पीने पिलाने में उस आशिक का जिक्र जरूर करते हैं।

किसी को नई नई लत लगी हो तो उस आशिक का नाम लेकर आगाह भी किया जाता है कि हालत उसके जैसी ही हो जाएगी, इससे उलट हर नया पियक्कड़ उस वर्ल्ड फेमस दारू के आशिक को मन ही मन अपना गुरु मान लेता है। खैर ये तो रहे गली मुहल्ले में दारू के चर्चे।

थोड़ा और विस्तार देते हैं, इसे पीने के भी कई स्टाइल बनाए गए हैं। एक तो हमारा पटियाला पेग है भाई, सुना है इसमें दारूबाज लोग पानी और शराब की कई परतें बनाते हैं। चीन में तो गिलासी (गिलास का बच्चा) में दारू पी जाती है। चावल की बनी ये दारू चीनी लोग बिना संभले ही पीते हैं, एक बार में एक गिलासी पेग खत्म। इसका एक किसिम है शैंपेन, साला इसके तो हिलाहिलाकर पीते है।

अगला प्रपंच शुरू करते हैः दारू बिकने का स्टाइलः छत्तीसगढ़ में मुझे एक व्यक्ति मिला, जो भोर में चार बजे ही उठ जाता था और सांस लेने से ज्यादा जरूरी दारू पीना समझता था। सुबह दारू पीने के लिए उसे रात को ही इसका इंतजाम करना पड़ता था। रात को एक पव्वा ले आता और सुबह होते ही इसका पेग लगा लेता। छत्तीसगढ़ में शराब की दुकानें रात के ग्यारह बजे बंद होतीं तो सुबह ग्यारह बजे से पहले खुलना नामुमकिन था। (वैसे दारू जगत में नामुमकिन कुछ भी नहीं होता)। मतलब कि अगर छत्तीसगढ़ में सुबह सुबह पीनी है तो रात के ग्यारह बजे से पहले खरीदो और स्टोर करके रखो सुबह तक। लेकिन हरियाणा में ऐसी समस्या नही है। यहां ताऊ रात को ग्यारह बजे सरकार के लिए बंद करता है, बारह बजे जनता के लिए बंद करता है और एक दो बजे तक पियक्कड़ों के लिए बंद करता है और रात को दुकान में ही सो जाता है। सुबह जैसे ही नींद खुली, शटर उठाकर फिर सो जाता है, मतलब कि भोर में तो नहीं, लेकिन सुबह सुबह किसी के भी पीने की इच्छा पूरी हो सकती है। इसके अलावा गुजरात में मोदी भाई ने तो पूरा बैन कर दिया है, लेकिन जब गुजराती को पीने की लत लगती है तो वह यो तो राजस्थान या फिर महाराष्ट्र की तरफ भागता है और जो गुजराती बाहर नहीं निकल पाता, वह मोदी भाई को शराप कर शराब की लत को दबा ले जाता है।

ये सब तो पुरानी बातें हुईंः नई बात ये है बाबा कि आजकल, नौकरी के लिए जाओ तो पीने के शौकीन बॉस लोग ये जरूर पूछते हैं कि पीते हो या नहीं। कम से कम नब्बे प्रतिशत बॉस के लिए यह प्रश्न सामान्य हो चुका है। उन्हें भी लगता है कि नया बंदा आएगा तो उसे पीने पिलाने और फिर उससे बोतल मंगाने की भी पहले क्लीअर कर ही ली जाए। इसके अलावा सोशल साइट्स ने तो बाकायदा एक कालम दे रखा हैः स्मोकिंग- यस आर नो, ड्रिंकिंगः यस आर नो..मतलब हर तरफ पियक्कड़ों के लिए एक अलग और सशक्त समुदाय बनाने पर जोर दिया जा रहा है।

सभी पियक्कड़ों को पता है और इतिहास भी गवाह है कि दारूबाजों को हमेशा उनके घरवालों और समाज के लोगों ने ताना दे दे कर बहुत सताया है। हर य़ुग के दारूबाजों के केवल उलाहना ही मिली है, इसीलिए आज के दारूबाज लोग कोई भी मिलता है तो यह क्लीअर करने की कोशिश करते हैं कि साला पीता हो तो अपनी पार्टी में शामिल करो, नहीं तो अपने लिए किसी काम का नहीं, बाद में विद्रोही भी साबित हो सकता है। सभी दारूबाज अपने लिए एक सशक्त समाज की स्थापना करने में लगे हैं। अगर आप भी दारूबाज हो तो इस समाज में आपका भी स्वागत है..तो बताओ ड्रिंकिंगः यस आर नो।

मिस यू मूंबई...

इस तस्वीर को सिर्फ एक झलक देखिए,हो सकता है कि आप इस रेलवे स्टेशन का नाम न बता सकें,लेकिन इतना तो ज़रुर बता देंगें कि यह लोकल ट्रेन खड़ी है, और यह नज़ारा मुंबई के किसी स्टेशन का हो सकता है...।
अब ज़रा गौर से इस नीचे वाली तस्वीर को देखिए क्या आप बता सकते हैं कि यह तस्वीर कहां कि है?
चलिए मैं बताता हूं
सबसे उपर जो तस्वीर है वो मुंबई के सीएसटी रेलवे स्टेशन पर खड़ी लोकल ट्रेन ही है,और नीचे की ये तस्वीर दिल्ली की हाईटेक मेट्रो ट्रेन है जो राजीव चौक स्टेशन पर अपने गुजरने के इंतज़ार में खड़ी हैं।
..मेट्रों में सफर करने वाले कुछ इस तरह सफर करते हैं..
जबकि मुंबई में लोकल में सफर करने वाले मुसाफिर कुछ यूं पहुंचते हैं अपनी मंजिल तक।

एक साल पहले मुंबई की भागती दौड़ती ज़िंदगी का हिस्सा मैं भी था रोज बोरिवली से सीएसटी तक फास्ट ट्रेन पकड़ता था लेकिन जिस दिन मैं विरार वाली ट्रेन पकड़ लेता था और सीएसटी तक जाता था उस दिन ज़िंदगी का एक नया मज़ा मिलता था,विरार टू सिएसटी की जगह इस ट्रेन का नाम कयामत से कयामत तक होना चहिए,एक साल तक रोज आते जाते न जाने कितने अंजान चेहरे दोस्त बन गए थे सुमित भाई,श्रीकांत,अजित सर और बहुत सारे...।
लेकिन अब मुंबई नहीं रहा या यूं कहें कि अब मैं मुंबई में नहीं रहा...अब मैं रसूखदारों के शहर,दिलवालों के शहर,दिल्ली में हूं...और लोकल की जगह हाईटेक मेट्रों ने ले ली है,राजीव चौक से पटेल चौक तक रोज के सफर में अब कुछ लोग मिलने लगे हैं जो रोज ही मिल जाते हैं,कुछ देखकर मुस्कुराने भी लगे हैं लोकल की तरह राहगीरों का अभी गुट नहीं बना, न ही सीट निर्धारित हुई है कि कौन कहां बैठेगा...आज आफिस के लिए निकला बाहर बारिश हो रही थी मेट्रों में गजब की भीड़ थी,अंदर घुसते ही लगा लोकल में आ ही गया हूं मेट्रों की छत से जगह जगह पानी टपक रहा था...हर दूसरा आदमी पहले आदमी की गर्म सांसे साफ तौर पर महसूस कर रहा था...बार बार मुंबई याद आ रहा था हर बार हर स्टेशन पर ऐसा लग रहा था मानों सीएसटी आने वाला है ।

शनिवार, 31 जुलाई 2010

जियो हाजी भाई...।

फिल्मकारों को गैंगस्टर, अंडरवर्ल्ड, माफिया, डॉन और तस्कर हमेशा से भाते रहे हैं। ऐसा स्वाभाविक भी है। 50 के दशक में, एक दिन सपनों में जीने वाली बम्बई दहल गई थी। वजह थी दिन-दहाड़े एक बैंक में हुई डकैती। मुम्बई की यह पहली बैंक डकैती फोर्ट इलाके के द लॉयड बैंक में हुई थी। इसी दौरान दिल्ली से बम्बई गए अनोखे लाल नामक व्यक्ति ने 16 लाख की यह डकैती डाली थी। अनोखे लाल को इस डकैती का आइडिया बैंक डकैती पर बनी अमेरिकी फिल्म ‘हाईवे 301’ से मिला था। डकैती के बाद से फिल्म ‘हाईवे 301’ को बम्बई में बैन कर दिया गया था। गैंगस्टर से बम्बई और बॉलीवुड का यह पहला परिचय था …….
“सुल्तान मिर्जा़”…. जुर्म की दुनिया का बेताज बादशाह,जिसे खाकीधारियों की नज़र में स्मगलर कहा जाता है और गरीबों की ज़ुबान में मसीहा...। वो एक को लूटता है और फिर दस में बांट देता है...सब कुछ फिल्मी....बिल्कुल फिल्मी..
जी हां मैं वही बात कर रहा हूं जो आप समझ रहें हैं फिल्म वंस अपान द टाइम इन मुंबई की,फिल्म की रिलीज होने के पहले बहुत सारे कयास सामने आए किसी ने कहा कि मुंबई के पहले डॉन हाजी मस्तान की निजी जिंदगी में दखलांदाजी कर रही है मिलन लुथारिया की यह फिल्म, तो वहीं हाजी मस्तान के घर वालों को यह आशंका सता रही थी कि पता नहीं फिल्म में क्या क्या दिखाया होगा..।
आखिरकार फिल्म रिलीज हुई,..मद्रास में भीषण बाढ़ आई और एक परिवार पानी की लहरों पर शांत हो गया,परिवार का एक बच्चा बच गया जो पता नहीं कैसे जादू की नगरी यानि मुंबई पहुंच गया...बावा भी कुछ ऐसे ही मुंबई पहुंचा था,लेकिन लहरों से बचकर नहीं अपने पिता हैदर मिर्जा़ के साथ.. बावा यानि हाजी मस्तान,हाजी मस्तान का बचपन का नाम बावा था... हैदर मिर्जा ने मुंबई पहुंचकर साईकिल और टु व्हीलर रिपेयरिग की एक दुकान खोली..अपने पिता के साथ बावा भी दुकान में हाथ बंटाता था..लेकिन दुकान पर उसका मन नहीं लगा,किस्मत ने साथ दिया और उसे एक नौकरी मिल गई,कुली की नौकरी,बावा बंदरगाह में कुली बन गया और अदेव और हांग कांग से आने वाले मुसाफिरों का सामान उठाने लगा..बंदरगाह और मुसाफिरों से याराना कुछ इस कदर बढ़ा कि समंदर की लहरों ने सीढि़यां बनायीं और और उस पर चढकर बावा जुर्म की उस मीनार पर जा बैठा जहां सिर्फ एक ही सरताज था खुद बावा...। बावा 1 मार्च 1926 को तमिलनाडु के पनैकुलम में पैदा हुए था बावा के बारें में किसी ने सोचा भी नही होगा कि एक अदद जूते पहनने को तरसने वाला यह शख्श पूरे मुंबई को अपने पैर की जूती बना लेगा...।
खैर...मैने अभी अभी वंस अपान द टाइम इन मुंबई देखी है, मुझे फिल्म बहुत अच्छी लगी उसके बाद मैने हाजी मस्तान की जीवनी अपने गूगल गुरु से निकाली और चाट ली...मुझे फिल्म भी अच्छी लगी और हाजी भाई की जीवनी भी...एकदम लल्लनटॉप। दिल्ली में अपने यूएनआई आफिस में बैठा हूं..बाहर जोरदार बारिश हो रही है कहीं शूट पर नहीं निकलना था और मेरे पास कोई काम भी नहीं था तो सोचा क्यों न कुछ बतकही ही हो जाए...।
वैसे फिल्म अच्छी है साथ ही मेरे दिमाग में अभी भी ये सवाल भी है कि क्या वास्तव में हाजी मस्तान ऐसा ही था...?

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

खुजलीबाज और उंगलीबाज


खुजलीबाज और उंगलीबाज
कई दिनों से कुछ लिखने की फिराक में हूं,लेकिन मेरी लिखने की अभिलाषाओं पर दो तरह के लोग मिलकर ऐसा तुषारापात करते हैं कि भावनाओं की फसल का अंकुर कागज़ पर उतरने के पहले ही मटियामेट हो जाता है...ये दोनो सुकून और शांति के दुश्मन हैं... दोनों की नज़र हमेशा ऐसे महानुभावों पर रहती है जो जिंदगी की भागमभाग से अलग होकर कुछ पल चैन से रहना चाहते हैं...इनमें से एक का नाम है खुजलीबाज...। खुजलीबाज एक ऐसा प्राणी है जो हर दफ्तर कार्यालय में पाया जाता है..इतना ही नहीं, राह चलते सड़क पर, स्टेशन पर , या फिर पिक्चर हॉल में भी ऐसे प्राणियों की प्रजाति बड़ी आसानी से मिल जाती है...। खुजलीबाज जब कभी भी फ्री होता है, न जाने क्यों प्राकृतिक रुप से उसकी तशरीफ में खुजली होने लगती है...खुजली भी ऐसी जिसका कोई जोड़ नहीं, कोई तोड़ नहीं..इनकी खुजलाहट के आगे बीटेक्स, और इचगार्ड जैसी दवाइयों को भी पसीना आ जाता है...इस खुजलाहट को वो अपने परम मित्र, बड़े विचित्र माननीय उंगलीबाज से शेयर करता है, उंगलीबाज की पहचान उसकी उंगली है,उसकी उंगली में सलमान के “दस के दम” से कहीं ज़्यादा दम होता है...इन दोनो ने मिलकर इतना चरस किया है कि मेरे साथ साथ पूरा देश त्राहिमाम कर रहा है...इन दोनों के सामने कोई इंसान अपने मन मुताबिक काम नहीं कर सकता...उसके खुद के काम में अड़ंगा लगाकर ये ऐसा कार्यभार दिलाते हैं मानों देश की धरती से सारा सोना एक ही दिन में निकलवा लेंगे..।
सिर्फ देश ही नहीं विदेश की राजनीति में भी इन दोनो का अच्छा खासा दखल है...और इन दोनों ने अपने अपने गुरु भी बना रखे हैं..जितने भी खुजलीबाज हैं उनके गुरु आदरणीय शशी थरुर जी हैं,जिनकी खुजली ने देश के सारे राजनीतिज्ञों की खाज में चार चांद लगा रखा है...वहीं उंगलीबाजों को मैदान में डटे रहने की हिदायत उंगलीमास्टर अमरसिंह से मिलती है...दुनिया के समस्त उंगलीबाज इन्हें पिता तुल्य मानते हैं...अपनी उंगली की ताकत ये समय समय पर दिखाते रहते हैं...।
खैर...कई दिनों की मशक्कत के बाद आखिरकार मैं कुछ लिखने में सफल हो गया,हालांकि आज भी ये खुजलीबाज और उंगलीबाज राह में रोड़े अटका रहे थे लेकिन इन दोनों के प्रकोप से अंतत: मैं बच गया....।
भले ही मैं बच गया लेकिन आप लोगों को हिदायत दे रहा हूं ज़रा बच के रहना इन दोंनों से...।

सोमवार, 8 मार्च 2010

अगले जनम मोहे बेटा न कीजो

पूरा देश अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मना रहा है।मैंने भी सोच रखा था कि कुछ तो ज़रुर लिखुंगा मैं भी..कल शाम से ही दिमाग में दुनिया भर का फितूर हिलोरें मार रहा था..सुबह सुबह आफिस पहुंचा जैसे ही कम्प्यूटर सिस्टम आन किया आलोक सिंह भदौरिया जी की पोस्ट पर नज़र पड़ी इसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि आलोक जी ने मेरे लिखने के लिए कुछ नहीं छोड़ा..इस लेख को पढ़ने के बाद आपसे सिर्फ इतना कहूंगा कि.. अगले जनम मोहे बेटा न कीजो....
इस पोस्ट पर एक नज़र ज़रुर डालें।
अगले जनम मोहे बेटा न कीजो
आलोक सिंह भदौरिया
‘अवतार पयंबर जनती है, फिर भी शैतान की बेटी है...’ औरत की हालत पर साहिर लुधियानवी ने कभी लिखा था। ये लाइनें मैं बचपन से सुनता आया हूं और यह सवाल भी खुद से पूछता रहा हूं। पिछले तीन महीनों से एक अजीब-सी आग में जल रहा है दिल-दिमाग। उस आग की आंच में बाकी सारे विचार खाक हो गए, एक अक्षर भी नहीं लिख सका।

इसकी शुरुआत तीन महीने पहले हुई जब ऑफिस में अपनी सीनियर और साथ काम करने वाली दोस्त से एक जुमला सुना - लड़के/मर्द कमीने होते हैं। इतनी साफ गाली मैंने कभी नहीं सुनी थी। सो जोर देकर पूछा, मैडम, आपको क्या लगता है, क्या मैं भी, हमारे पिता-भाई सभी मर्द कमीने हैं? उन्होंने मेरा दिल बहलाने को भी पलकें नहीं झपकाईं। याद आया, जब बहनों की समस्याएं समझने, उन्हें सीख देने की कोशिश करता था तो अक्सर सुनना पड़ता था, आप नहीं समझोगे भइया, आप लड़के हो। यहां भी वही डायलॉग- तुम नहीं समझोगे...।

क्यों नहीं समझूंगा मैं, दूसरे ग्रह से आया हूं? इसी समाज में पला-बढ़ा हूं। बहरहाल, बहस करने की जगह मैंने ठान लिया, आज से खुद को महिला या लड़की समझकर अपने माहौल को आंकने की कोशिश करूंगा। इन तीन महीनों में ही मैं यह कहने को मजबूर हो गया- मर्द वाकई कमीने होते हैं, कुत्ते नहीं बल्कि भेड़िए। हां, इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अपनी मां, बहनों, बेटियों और दोस्तों की सलामती के लिए यही कहूंगा कि जब तक हालात नहीं बदलते, मुझ पर भी भरोसा मत करना।

इन तीन महीनों में देखा, हम मर्दों की दुनिया औरत के शरीर के इर्द-गिर्द घूमती है। हमारे चुटकुले, हमारी कुंठाएं, गॉसिप, हमारे बाजार यहां तक कि हमारी खबरें भी। हम इस हद तक निर्मम और संवेदनाहीन हो चुके हैं कि जिस शरीर से जन्म लिया, जब वही शरीर जीवन के अंकुरण की प्रक्रिया से हर महीने गुजरता है तो उस दर्द का भी मजाक उड़ाने में नहीं हिचकते। मर्दों के लिए कमीने से भी गई-गुजरी गाली ढूंढनी पड़ेगी। किसी उम्र, पद, तबका, रंग, नस्ल, हैसियत का मर्द हो, इसका अपवाद नहीं। इन तीन महीनों में मुझे लगा कि मैं नरभक्षी राक्षसों के बीच जी रहा हूं, अगर इनके बीच सारी उम्र काटनी पड़ती तो...? कांप उठता हूं। हां, हम दोगले भी हैं, जैसे ही कोई लड़की अगल-बगल दिखती थी, हममें से कुछ तो शालीनता की चादर ओढ़ लेते, कुछ को तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता था।

इस दौरान मैंने हमें जनम देने वाली ‘शैतान की बेटी’ को और करीब से जानने की कोशिश की। दिल्ली एक बेरहम महानगर है, लेकिन सुबह 4:30 से रात 2:30 बजे तक मैंने इन्हें बेखौफ अंदाज में, खिलखिलाते, अपनी तन्मयता में अपनी-अपनी राह जाते देखा। इनमें से कई छोटे शहरों से या गांवों से आईं थीं, अधिकतर अकेली। कुछ परिवारों के साथ रहते हुए भी निपट अकेली थीं। लेकिन एक बात सभी में समान थी, सब अपने-अपने कंधों पर एक बोझ उठाए थीं, मां-बाप से यह कहतीं - हम अपने भाइयों से कहीं भी कम नहीं, तुमने एक लड़के की चाह में हमें नामुराद की तरह इस दुनिया में ढकेल दिया। हमारे पैदा होने पर खुशी तो दूर, नवजात शरीर को ढंकने के लिए साफ, नए कपड़े तक नहीं मिल सके। तब शायद हम यही सोचकर जिंदा रहे कि एक दिन तुम्हें बता सकें कि हम तुम्हारे वंश को बढ़ाने वाले लड़के से किसी सूरत में पीछे नहीं हैं। लेकिन वह यह कह रही थीं बिना किसी विज्ञापन के, किसी मौन योद्धा की तरह।

मैंने देखा हर बार मर्दों की खड़ी दीवार ने इनके कद को और बढ़ा दिया है। एक और अजीब बात, मैंने हर लड़की को जिंदगी का एक-एक पल बिंदास होकर जीते देखा, वजह ... उन्हें पता नहीं कि अगले पल उनकी जिंदगी का क्या होगा। इसी सबके दौरान वे अपने सपने, शौक और जुनून को जिंदा रखे हुए थीं। कमरतोड़ 10 घंटों की नौकरी के बाद अगले 10 घंटे एक पैर पर खड़े-खड़े बिता देतीं, महज इसलिए कि... वह उन्हें रूटीन से आजादी देता है, पल भर के लिए हवा के ताजा झोंके की तरह। इस सबके मूल में यह था, कल को पता नहीं किसके पल्ले बंधना पड़े, न जाने कौन पर कतर दे। अब जा कर पता लगा कि मर्दों की जिंदगी तो 60, 70, 80 बरस की होती है, लेकिन इन लड़कियों की जिंदगी बस 25-26 तक। यानी तब तक जब तक गृहस्थी की उम्रकैद नहीं शुरू हो जाती। चौंक गए, हमारी-आपकी मांएं इसी गृहस्थी की चारदीवारी में बंद कैदी हैं। वे भूल गई हैं, इसके बाहर भी दुनिया बसती है। उन्हें जरा इस लोहे के फाटक से बाहर खड़ा करके तो देखिए, अबोध बच्चे की तरह लडख़ड़ा कर बैठ जाएंगी, मुमकिन है खुद लौटकर इसी जेल का दरवाजा खटखटाकर अंदर आने की गुहार लगाएं।

इस अंतराल में एक और ख्याल आया कि यह पूरी दुनिया मर्दपरस्त है, हमारी साइंस, मेडिकल जगत भी। एक दिन बस से जा रहा था, अचानक किसी खिड़की के पास से आवाज आई, इन्हें हमारी चिंता होती तो जैसे कॉन्डम वेंडिंग मशीन लगाई, वैसे ही सेनेटरी नैपकिन की वेंडिंग मशीन न लगा देते। मैं सन्न रह गया, सूरज की रोशनी में चमकता हुआ एक माथा, कच्चे दूध सी पवित्रता लिए भोली-सी आंखें यह सवाल पूछ रही थीं। सच है, यह ख्याल हम मर्दों को क्यों नहीं आया? शायद हर महीने मर्दों को यह तकलीफ झेलनी होती तो शायद साइंटिस्टों की पूरी जमात चांद पर पानी बाद में खोजती, सबसे पहले इस दर्द को कम करने में जुट जाती। चूंकि मर्द को दर्द नहीं होता, इसलिए औरत का शरीर नरक का द्वार है कह कर छुटकारा पा लेता है।

उफ्फ, कैसे इतनी दीवारें खींच लीं हमने। मर्द-औरत अलग-अलग ग्रहों से नहीं आए हैं। फिर यह अविश्वास क्यों? मुझे तो लगता है, मर्द डरे हुए हैं औरतों से, मौन रहकर दर्द सहने की उसकी क्षमता से, अपने जीवन की बाजी लगाकर एक नई जिंदगी को इस दुनिया में लाने की ताकत से। इंद्र का भी सिंहासन कांप उठा होगा कि कहीं कोई औरत न उस पर काबिज हो जाए। तबसे ही पैदा होते ही लड़की को एक झूठे प्रचार का सामना करना पड़ता है, प्रोपैगंडा का सामना करना पड़ता है, उसे समझाया जाता है कि वह कितनी अबला और असुरक्षित है। खैर...

पर मेरा तर्क फिर सिर उठाता है - दोस्त, सभी मर्द, लड़के एक जैसे नहीं होते। देखो, मैं बिल्कुल वैसा नहीं हूं, क्योंकि मुझे तुमने ही गढ़ा है। मेरी मां, मेरी तीनों बहनों ने मुझे ऐसा बनाया है कि मैं इस दर्द को महसूस कर सकता हूं, फिर मुझे दोषियों की कतार में क्यों खड़ा कर देती हो? और... मेरे पापा भी वैसे नहीं हैं, अपने कुनबे में अफीम चटाकर मौत की नींद सुला दी जातीं लड़कियों को जिंदगी देने के लिए उन्होंने लड़कपन में ही जीतोड़ कोशिश की और कामयाबी भी पाई। मेरी एक बुआ को तो वह गांव के बाहर कचरे के ढेर से उठाकर लाए थे।

लेकिन लगता है कि हमारी जमात के अपराध इतने ज्यादा हैं कि विधाता से इतना ही कहना चाहता हूं, अगले जनम मोहे बिटुआ न कीजो, मुझे भी शैतान की बेटी ही बनाना ताकि मैं भी इस मौन संघर्ष का हिस्सा बन सकूं।
जाते-जाते एक बात और... साहिर लुधियानवी की मशहूर नज्म "औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया" को लता मंगेशकर ने साधना फिल्म के लिए गाया था। इस गाने को यूट्यूब पर सुनने के लिए यहां क्लिक करें। औरतों पर इतना बेहतरीन गीत एक महिला की आवाज़ में सुनकर शायद आपकी आंखों में भी आंसू आ जाएं। और यह सोचकर अच्छा लगता है कि यह गीत एक मर्द - साहिर लुधियानवी - ने लिखा था।

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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

अब न रही वह होली, अब न रहे होलिहार!

अब न रही वह होली, अब न रहे होलिहार!


बड़ी गहरी नींद में सो रहा था!इस बात से बेखबर कि कल होली है!सुबह सुबह ही फोन की घनघनाहट ने नींद में खलल डाली!उनींदे स्वर में फोन रिसीव किया!गांव से छोटे भाई का फोन था!फोन रिसीव होते ही उसने पूछा,भाई घर नहीं आ रहें हैं क्या? मैंने छुट्टी न मिलने का रोना रोया,थोड़ा मायूस होकर उसने फोन रख दिया! जितना मायूस छोटा भाई हुआ था उससे कहीं ज्यादा मायूस मैं था क्यों कि मैं उसकी भावनाओं को समझ रहा था! थोड़ी देर में मैं फ्लैश बैक में चला गया!जब मैं गांव में रहता था,होली के दस दिन पहले से ही चच्चू के घर आने का इंतज़ार करने लगता था! जिस साल होली पर चच्चू नहीं आते थे,उस वर्ष होली के रंग फीके रहते थे, लेकिन जिस साल चच्चू आ जाते थे उस साल होली का मज़ा कई गुना बढ़ जाता था!

होली के चटक रंग, भंग की तरंग एवं बच्चों की हुड़दंग के साथ हमारी टोली ऐसा समा बांधती थी कि बूढ़ी हो चुकी धड़कनों में भी युवा अरमान मचल उठते थे.. वसंत की आहट आते ही गंवई लोगों के जेहन में होली की हुड़दंग की तस्वीर उभरने लगती थी,चौपालों में ढोल की थाप व मजीरों की झनझनाहट के बीच होली खेलयं रघुवीरा अवध में,और होली है..जैसे गीत गूंजने लगते थे। चौपाल में गूंजते होली गीतों को सुनने के लिए घर की बहुएं, भौजाइयां घूंघट के पट के भीतर मुस्कुराते हुए बाहर ड्योढ़ी तक आती थीं। भौजाइयों को देख जहां युवा मन से गीत की तरंग फूटती, वहीं चौपाल में बैठे बाबा अपने मूंछों को ताव दे फागुनी गीत के सुर को धार देते। चौपाल में किया गया उनका हर मजाक 'फागुन में बाबा देवर लागैं' की तर्ज पर क्षम्य हो जाते थे।फाग की यह संस्कृति भाई-चारे और आपसी मोहब्बत का पैगाम लेकर आती थी और सामाजिक बिखराव को जोड़ने की कड़ी के रूप में उभरती थी। लोग होली के दिन रंग खेलते व अबीर गुलाल लगाकर गले मिलकर सारे गिले शिकवे भूल जाते थे। एक-दूसरे के यहां जाकर लजीज व्यंजन का लुत्फ उठाते थे। भांग व ठंडई का भी दौर चलता था।
लेकिन अब यह गुजरे जमाने की बात रही।शहर की आपाधापी और भागमदौड़ से सनी हवाएं गावों की मदमस्त हवाओं में इस कदर घुल गयी हैं की गांव की होली के नैन नक्श बदल गए हैं...होली की परंपरा विलुप्त होने की कगार पर है। अब होलिहार शहर आ गए हैं..नौकरी करने लगे हैं... अब फागुन का पूरा माह बीत जाता है..लेकिन किसी गांव में न तो ढोलक की थाप सुनायी देती है और न ही मजीरों और झांझ की मधुर झनकार। हम भी बाहर निकलकर होली की हुड़दंग में शामिल होने के बजाय घर में सीडी प्लेयर से होली के मन पसंद फिल्मी व भोजपुरी गीत सुनकर और फिल्म देखकर होली की परंपरा निभा रहे हैं.. तो भइया हमारी तरफ से आपको ब्लॉग के जरिए ही सही,लोकिन शहरी होली की ढेर सारी शुभकामनाएं।