शनिवार, 28 अगस्त 2010

तेलंगों का बहुमत



हमारे बूढ़े बुजुर्ग कहा करते थे बड़ाई से डरना चाहिए और किसी के मुंह पर उसकी बड़ाई कदापि न करनी चाहिए, लेकिन आज सब कुछ उलट हो रहा है। बड़ी बड़ी सभाओँ में नेतागणों के अनुज उनके बड़प्पन के बोल गा रहे है, इसके लिए इलाहाबादियों के पास एक स्पेशल शब्द है। चेलागिरी करने वालों को हम इलाहाबादी तेलंग कहते हैं, उसके इस गुण को तेल्लई कहते हैं जिसका मतलब है तेल लगाना। तेल लगाने से तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति का प्रिय बनने की कोशिश में उसकी तारीफों के पुल बांधे जाएं और वो भी बिना सपोर्ट के (इससे ढहने में आसानी रहती है)।
पैदावार बढ़ रही हैः आज तेलंग लोगों की पूरी एक फौज खड़ी हो गई है। जिधर देखो तेलंग पैदा हो रहे हैं, एक लहलहाती फसल खड़ी है, पककर कटने को तैयार, गोदामों में नहीं यह सीधे दिमाग में घुसने को तैयार है। कोई फेसबुक पर तेल लगा रहा है, कोई ट्विटर पर, कोई फोनय पर ठोंके पड़ा है, सब तेल लगाने में तल्लीन हैं। हर कोई इस गुण को अपने में उत्पन्न करना चाहता है और इसकी पैदाइश के बाद इसकी संभाल ऐसे करने में लगा है जैसे नवजात शिशु की देखभाल की जाती है।
बंधुआ तेलंगः जब हम विश्वविद्यालय में पढ़ा करते थे तो वहां शोधार्थियों से बातों ही बातों में पचा चला कि ये लोग शोध कम करते हैं, तेल्लई ज्यादा करना पड़ता है और इनके गाइड प्रोफेसर्स ने इन्हे बंधुआ तेलंग बना रखा है। वे उनके घरों में सब्जी लातें हैं, बच्चों को ट्यूशन देते हैं, कुछ तो स्कूल भी छोड़ने जाते हैं। ऐसे ही ढेर सारे काम ये लोग अपने गाइड्स के घरों के किया करते थे। यह सब कुछ जानकर बड़ा अटपटा सा लगा। ऐसे बंधुआ तेलंग आपको हर जगह मिलेंगे, सरकारी दफ्तरों, निजी संस्थानों, हर जगह। सरजी की हां में हां मिलाना और सबके सामने सरजी के कारनामों की प्रस्तुति देना इनके कर्तव्य और विशेषाधिकार हैं।
तेंलग नहीं हिजड़े हैः दरअसल जो लोग अपनी इच्छा से तेल्लई का काम नहीं कर रहे, वे तेलंग कम हिजड़े ज्यादा है। इन्हें अपने ऊपर जरा भी विश्वास नहीं होता, अपने काम पर ये भरोसा नहीं करते, तो तेल्लई का माध्यम चुनते हैं कि किसी तरह लक्ष्य की प्राप्ति हो जाए, और एक बार इस तरीके से मिला लक्ष्य इनके तेल्लई को जगा देता है और नशए की तरह लहूं में समा जाता है और ऐसे लोग इसी खुशफहमी में लीन रहते है कि तेल्लई ही हर मर्ज की दवा है, ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा होने के कारण आज बहुमत भी तेल्लई का ही है।
जय हो तेलंगों की।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

दूसरे के हिस्से से सेहत नहीं बनती


जब किसी इंसान को डायबीटीज हो जाती है, तो यही कहता घूमता हैः भाई एड्स हो जाए, कैंसर हो जाए मगर डायबीटीज न हो। सबको पता है कि डायबीटीज क्यों होती है-ज्यादा मिठाई खाने से। कुछ यही हालत अपने इंडिया की भी है (भारत की इसलिए नहीं क्योंकि उसका सपना तो बापू ने देखा था)। सारे के सारे मिठाई खाने में जुटे हैं और खिलानेवाले भी बड़े चाव से खिलाते हैं। फर्क बस इतना है कि किसी को बूंदी का लड्डू मिलता है तो किसी के हिस्से में पेड़ा आता है और जनाब ये मिठाई किसी हलवाई की दुकान पर नहीं मिलती। इसकी पैदाइश तो आरबीआई के घर होती है, लेकिन खाने-खिलाने वाले मौका हाथ लगते ही इसे मिठाई के डिब्बे में बंद कर लेते हैं और बना लिया रिश्वत की मिठाई।

हमारे यहां यह मिठाई खाने का बड़ा चलन है। लालू ने चारा मिठाई खाई, लोग कहते हैं राजीव के जमाने में बहुत लोगों ने बोफोर्स वाली मुठाई खाई, फिर तहलका मिठाई आई, ये सब मिठाइयां तो बड़े लोगों के लिए बनीं थीं। आजकल बहुत लोग कॉमनवेल्थ मिठाई खा रहे हैं। कलमाड़ी भैया तो वर्ल्ड फेम हो गए हैं, मिठाई खाने में। इसा खाने पीने की आदत में किसी को पेट की याद न आई, बेचारा पेट, कितना पचाये, आप तो ठूसे पड़े हैं, लेकिन एक हद होती है मालिक किसी चीज की। पेट कब जवाब दे जाए, कुछ पता नहीं।
हमारे यहां कॉमनवेल्थ शुरू होने में महज कुछ दिन बाकी हैं, कॉमनवेल्थ की मिठाई खाने वालों की बीमारी के बारे में मीडिया ने सारे देश को बताया, बड़ी किरकिरी हुई, फिर सोचा गया इ सब ब्रत रख लेंगे, लेकिन मजाल भैया कि एको दिन मिठाई खाने में नागा हो जाए। बिल्डिंग बनी तो एक उसमें चौड़ाई थोड़ा घटाय के मिठाई मंगवाय लिया, स्टेडिय़म मा घटिया वाली माटी डरनवाएन, जलेबी आई गई। लेकिन मिठाई खाने वाले शायद भूल रहे हैं, कि अगर इसी तरह खाए तो पेट तो जाएगी ही, नाक भी कट जाएगी। ये लोग शायद बीजिंग ओलंपिक भूल रहे हैं। सब की आंखे फटी की फटी रह गईं थीं, चीन की तैयारी और मेहमाननवाजी देखकर, हमारे इहां शायद आंखी न फटे और सब फटी जाए। बर्ड नेस्ट स्टेडियम की तस्वीरे आज भी लोगों के जेहन में ताजा हैं। लेकिन कलमाड़ी जैसे मिठाई प्रेमी भूल गए हैं, इसीलिए तो खाए पड़े हैं, लेकिन अक्टूबर के पहिले हफ्ते में जब थू थू होने लगेगी, तो समझ में आ जाएगा, कि दूसरे का हिस्सा खाने से सेहत नहीं बनती।

रविवार, 22 अगस्त 2010

जूते का सम्मान करो पार्ट 2

हां भाई! हम भी तो यही कह रहें हैं कि जूतों का सम्मान करो, क्यों की जूते का सम्मान तो आदि अनंत काल से होता आ रहा है,फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जूते को खड़ाउं या चरण पादुका कहा जाता था और आज चरण पादुका ने जूते की शक्ल ले ली है...। आपको याद होगा भरत ने श्री राम चंद्र का जूता मतलब चरण पादुका माथे पर लगा कर लाए थे और अयोध्या के सिंहासन पर रख दिया था..उस वक्त जूते की ही औकात से पूरा राज्य चलता था।
 जमाने ने रंगत बदली तो जूते की औकात में भी बदलाव आया, अनायास ही नहीं है कि हिंदुओं के विवाह संस्कार में जूते चुराने की रस्म को खास तवज्जो दिया गया है, जिसकी शादी में सालियां जूते न चुराएं,तो उस इंसान की सारी जिंदगी इस टीस में गुज़र जाती है कि काश मेरा भी जूता चोरी हुआ होता। जूते की औकात को हिंदी साहित्य ने भी बाखूब पहचाना यही वजह थी कि मुंशी प्रेमचंद्र ने भी अपनी एक कहानी में बताया कि एक आदमी को जूता किस हद तक परेशान कर सकता है,कहानी का थोड़ा सा जिक्र करता हूं, “एक गरीब आदमी रहता है उसके पास एक ही जूता होता है,जूता रोज कहीं न कहीं से फट जाता है,गरीब आदमी जो भी थोड़े बहुत रुपए कमाता है वो जूते सिलाने में ही खर्च हो जाते हैं,एक दिन आदमी झल्ला जाता है और सोचता है साला जूता है कि बवाल...और और जूते को घर के बाहर फेंकता है,संयोग की बात कि जूता बाहर जा रहे एक आदमी को लगता है और वो आदमी वहीं मर जाता है.. “लो भइया करने चले थे होम मगर हाथ जल गए” जूते की इज्ज़त नहीं की उसने, जूते ने लंका लगा कर रख दी, न घर का छोड़ा न घाट का।

जूते से सिर्फ साहित्य ही नहीं फिल्म जगत भी काफी आकर्षित रहा है । याद कीजिए राजकपूर का जूता, “मेरा जूता है जापानी वाला” या फिर हम आपके हैं कौन का, “जूते दे दो पैसे ले लो वाला गीत” ।

कहने का मतलब ये है कि जूता की अहमियत को हर किसी ने पहचाना हैं गंवई परिवेश में तो जूते ने न जाने कितने आई.ए.एस, पी.सी.एस बना दिए,अगर बच्चा स्कूल न जाए तो अभिभावक बच्चे को रौबीले अंदाज़ में कहता है “चुपचाप चले जाव स्कूल नहीं तव उतारा जूता न” जूते का दम तो देखिए बच्चा खट से स्कूल के लिए तैयार हो जाता है। लोफर लफंगे लड़कों के लिए गांव के बड़े बुज़ुर्गों के मुंह से अक्सर सुनने को मिलता है “फलाने के लउंडा बहुत उड़त है, आपा मा नहीं आय, भिगाय के बीस जूता परय तव अपने आप मियान मां आय जाय, साथ बैठे दूसरे चाचा कहेंगे अच्छा भिगोवा जूता होय सारे के बरे” मतलब साफ है कि जूता हमेशा से समाज सुधारक का काम करता आया है,लोगों ने इसके महत्व को समझा भी है ये नेता ही मुई ऐसी जात है जिसके भेजे में बात घुसती नहीं हैं...प्रभु संकेत दे रहें हैं बार बार कभी चिदंबरम के बगल से गुज़रे तो कभी उमर अब्दुल्ला के ऊपर से। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि जब जब धर्म की हानि होगी तब तब मैं किसी न किसी रुप में पृथ्वी पर अवतार लूंगा....हो न हो कलयुग में भगवान कहीं जूते के रुप में तो नहीं.....

शनिवार, 21 अगस्त 2010

जूते का भी सम्मान करो


15 अगस्त को एक बार फिर जूते की गूंज सुनाई दी। इस बार मारने वाला एक आम आदमी नहीं था, वो एक सरकारी नुमाइंदा था, लेकिन उसका निशाना एक राजनैतिक व्यक्तित्व पर था। उमर अब्दुल्ला पर जूता पड़ा तो नहीं, लेकिन राष्ट्रगान की सावधानी के बीच उन्हें इस बात का आभास हो गया था, कि जूते का राहु उनके सिर से होकर गुजर गया है, इसीलिए राज्य को संबोधित करते हुए जनता के दिल तक इसी जूते के सहारे पहुंचने की कोशिश की। बोले कि अगर हाथ में पत्थर के बजाय जूते ही आ जाएं, तो विरोध का यह तरीका ज्यादा अच्छा होगा। जूता फेंकने वाले उस हेड कांस्टेबल को उमर ने माफ भी कर दिया।
जार्ज डब्ल्यू बुश और मुंतजर अल जैदी से शुरू हुआः यह जूते सिर का खेल बीच में बड़ा लोकप्रिय हुआ। भारत में भी कई लोगों ने जूतमपैजार करने की कोशिश की और सोचा कि वे भी मुंतजर की तरह महान हो जाएंगे, अहा दुर्भाग्य ऐसा हो न सका। ये एक सिलसिला शुरू हुआ तो इस पर लेख भी लिखे गए और बड़ी मंत्रणाएं हुईं इस जूते पर। गोष्ठियां की गईं और धीरे धीरे जूता विरोध जताने का प्रतीक बनता जा रहा है। जैसे पहले किसी सभा या फैसले के विरोध में लोग काली पट्टी बांधकर जाते थे, अब ठीक उसी तरह जूता लेकर सामने आने लगे हैं। आगे चलकर हो सकता है ये जूता, झंडे की भी जगह हड़प ले, क्योंकि मुझे तो इसमें झंडे के भी गुण नजर आ रहे हैं। मसलनः उग्र विरोध के लिए काला जूता फेंको, शांत विरोध के लिए सफेद जूता फेंको और दिखाओ।
यह विरोधी जूता व्यापार के नए पट भी खोल सकता है। इस पर नए तरीके के रिसर्च हो सकते हैं- ज्यादा मारक क्षमता वाला जूता, हवा से हवा में वार करने वाला जूता, सीधे सिर पर वार करने वाला जूता, जमीन से खोपड़ी औरप हवा से खोपड़ी पर वार करने वाला जूता। मतलब कि इस जूते पर प्रक्षेपास्त्रों की तरह प्रयोग किए जा सकते हैं।
कल को हो सकता हैः जूते के निशान वाली एक बड़ी विरोधी पार्टी खड़ी हो जाए, जो एक सशक्त विपक्षी का किरदार निभाए। किसी भी विधेयक के विरोध मेः ले जूता, ले जूता, वोट नहीं जूतै जूता। और क्या पता भाई, जनता का दिल इस जूते वाली पार्टी पर आ जाए और धीरे धीरे कई देशों में ये जूते वाले लोग राज्य करने लगें, इसीलिए कहता हूं जूते का भी सम्मान करना सीखो।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

दारू का प्रपंचः ड्रिंकिंग यस ऑर नो

दारू के बारे में कई कहावतें मशहूर है और कई किस्से सुने जाते हैं. सुना है कि वैदिक काल में इसे सोमरस नाम से जाना जाता था और जश्न मनाते वक्त इसका जमकर

दोहन होता था। दीरू की लत जिसे लग जाए, वो अपना घरबार तक बेच देता है। वैसे अभी तक दारू से मेरा नैन मटक्का वाला नाता रहा है। इस अंगूर की बेटी के मुहब्बत में कइयों की बरबादी के किस्से सुने हैं। हर गली मुहल्ले में इसका एक वर्ल्ड फेमस आशिक होता है। लोग दारू पीने पिलाने में उस आशिक का जिक्र जरूर करते हैं।

किसी को नई नई लत लगी हो तो उस आशिक का नाम लेकर आगाह भी किया जाता है कि हालत उसके जैसी ही हो जाएगी, इससे उलट हर नया पियक्कड़ उस वर्ल्ड फेमस दारू के आशिक को मन ही मन अपना गुरु मान लेता है। खैर ये तो रहे गली मुहल्ले में दारू के चर्चे।

थोड़ा और विस्तार देते हैं, इसे पीने के भी कई स्टाइल बनाए गए हैं। एक तो हमारा पटियाला पेग है भाई, सुना है इसमें दारूबाज लोग पानी और शराब की कई परतें बनाते हैं। चीन में तो गिलासी (गिलास का बच्चा) में दारू पी जाती है। चावल की बनी ये दारू चीनी लोग बिना संभले ही पीते हैं, एक बार में एक गिलासी पेग खत्म। इसका एक किसिम है शैंपेन, साला इसके तो हिलाहिलाकर पीते है।

अगला प्रपंच शुरू करते हैः दारू बिकने का स्टाइलः छत्तीसगढ़ में मुझे एक व्यक्ति मिला, जो भोर में चार बजे ही उठ जाता था और सांस लेने से ज्यादा जरूरी दारू पीना समझता था। सुबह दारू पीने के लिए उसे रात को ही इसका इंतजाम करना पड़ता था। रात को एक पव्वा ले आता और सुबह होते ही इसका पेग लगा लेता। छत्तीसगढ़ में शराब की दुकानें रात के ग्यारह बजे बंद होतीं तो सुबह ग्यारह बजे से पहले खुलना नामुमकिन था। (वैसे दारू जगत में नामुमकिन कुछ भी नहीं होता)। मतलब कि अगर छत्तीसगढ़ में सुबह सुबह पीनी है तो रात के ग्यारह बजे से पहले खरीदो और स्टोर करके रखो सुबह तक। लेकिन हरियाणा में ऐसी समस्या नही है। यहां ताऊ रात को ग्यारह बजे सरकार के लिए बंद करता है, बारह बजे जनता के लिए बंद करता है और एक दो बजे तक पियक्कड़ों के लिए बंद करता है और रात को दुकान में ही सो जाता है। सुबह जैसे ही नींद खुली, शटर उठाकर फिर सो जाता है, मतलब कि भोर में तो नहीं, लेकिन सुबह सुबह किसी के भी पीने की इच्छा पूरी हो सकती है। इसके अलावा गुजरात में मोदी भाई ने तो पूरा बैन कर दिया है, लेकिन जब गुजराती को पीने की लत लगती है तो वह यो तो राजस्थान या फिर महाराष्ट्र की तरफ भागता है और जो गुजराती बाहर नहीं निकल पाता, वह मोदी भाई को शराप कर शराब की लत को दबा ले जाता है।

ये सब तो पुरानी बातें हुईंः नई बात ये है बाबा कि आजकल, नौकरी के लिए जाओ तो पीने के शौकीन बॉस लोग ये जरूर पूछते हैं कि पीते हो या नहीं। कम से कम नब्बे प्रतिशत बॉस के लिए यह प्रश्न सामान्य हो चुका है। उन्हें भी लगता है कि नया बंदा आएगा तो उसे पीने पिलाने और फिर उससे बोतल मंगाने की भी पहले क्लीअर कर ही ली जाए। इसके अलावा सोशल साइट्स ने तो बाकायदा एक कालम दे रखा हैः स्मोकिंग- यस आर नो, ड्रिंकिंगः यस आर नो..मतलब हर तरफ पियक्कड़ों के लिए एक अलग और सशक्त समुदाय बनाने पर जोर दिया जा रहा है।

सभी पियक्कड़ों को पता है और इतिहास भी गवाह है कि दारूबाजों को हमेशा उनके घरवालों और समाज के लोगों ने ताना दे दे कर बहुत सताया है। हर य़ुग के दारूबाजों के केवल उलाहना ही मिली है, इसीलिए आज के दारूबाज लोग कोई भी मिलता है तो यह क्लीअर करने की कोशिश करते हैं कि साला पीता हो तो अपनी पार्टी में शामिल करो, नहीं तो अपने लिए किसी काम का नहीं, बाद में विद्रोही भी साबित हो सकता है। सभी दारूबाज अपने लिए एक सशक्त समाज की स्थापना करने में लगे हैं। अगर आप भी दारूबाज हो तो इस समाज में आपका भी स्वागत है..तो बताओ ड्रिंकिंगः यस आर नो।

मिस यू मूंबई...

इस तस्वीर को सिर्फ एक झलक देखिए,हो सकता है कि आप इस रेलवे स्टेशन का नाम न बता सकें,लेकिन इतना तो ज़रुर बता देंगें कि यह लोकल ट्रेन खड़ी है, और यह नज़ारा मुंबई के किसी स्टेशन का हो सकता है...।
अब ज़रा गौर से इस नीचे वाली तस्वीर को देखिए क्या आप बता सकते हैं कि यह तस्वीर कहां कि है?
चलिए मैं बताता हूं
सबसे उपर जो तस्वीर है वो मुंबई के सीएसटी रेलवे स्टेशन पर खड़ी लोकल ट्रेन ही है,और नीचे की ये तस्वीर दिल्ली की हाईटेक मेट्रो ट्रेन है जो राजीव चौक स्टेशन पर अपने गुजरने के इंतज़ार में खड़ी हैं।
..मेट्रों में सफर करने वाले कुछ इस तरह सफर करते हैं..
जबकि मुंबई में लोकल में सफर करने वाले मुसाफिर कुछ यूं पहुंचते हैं अपनी मंजिल तक।

एक साल पहले मुंबई की भागती दौड़ती ज़िंदगी का हिस्सा मैं भी था रोज बोरिवली से सीएसटी तक फास्ट ट्रेन पकड़ता था लेकिन जिस दिन मैं विरार वाली ट्रेन पकड़ लेता था और सीएसटी तक जाता था उस दिन ज़िंदगी का एक नया मज़ा मिलता था,विरार टू सिएसटी की जगह इस ट्रेन का नाम कयामत से कयामत तक होना चहिए,एक साल तक रोज आते जाते न जाने कितने अंजान चेहरे दोस्त बन गए थे सुमित भाई,श्रीकांत,अजित सर और बहुत सारे...।
लेकिन अब मुंबई नहीं रहा या यूं कहें कि अब मैं मुंबई में नहीं रहा...अब मैं रसूखदारों के शहर,दिलवालों के शहर,दिल्ली में हूं...और लोकल की जगह हाईटेक मेट्रों ने ले ली है,राजीव चौक से पटेल चौक तक रोज के सफर में अब कुछ लोग मिलने लगे हैं जो रोज ही मिल जाते हैं,कुछ देखकर मुस्कुराने भी लगे हैं लोकल की तरह राहगीरों का अभी गुट नहीं बना, न ही सीट निर्धारित हुई है कि कौन कहां बैठेगा...आज आफिस के लिए निकला बाहर बारिश हो रही थी मेट्रों में गजब की भीड़ थी,अंदर घुसते ही लगा लोकल में आ ही गया हूं मेट्रों की छत से जगह जगह पानी टपक रहा था...हर दूसरा आदमी पहले आदमी की गर्म सांसे साफ तौर पर महसूस कर रहा था...बार बार मुंबई याद आ रहा था हर बार हर स्टेशन पर ऐसा लग रहा था मानों सीएसटी आने वाला है ।