बड़ी गहरी नींद में सो रहा था!इस बात से बेखबर कि कल होली है!सुबह सुबह ही फोन की घनघनाहट ने नींद में खलल डाली!उनींदे स्वर में फोन रिसीव किया!गांव से छोटे भाई का फोन था!फोन रिसीव होते ही उसने पूछा,भाई घर नहीं आ रहें हैं क्या? मैंने छुट्टी न मिलने का रोना रोया,थोड़ा मायूस होकर उसने फोन रख दिया! जितना मायूस छोटा भाई हुआ था उससे कहीं ज्यादा मायूस मैं था क्यों कि मैं उसकी भावनाओं को समझ रहा था! थोड़ी देर में मैं फ्लैश बैक में चला गया!जब मैं गांव में रहता था,होली के दस दिन पहले से ही चच्चू के घर आने का इंतज़ार करने लगता था! जिस साल होली पर चच्चू नहीं आते थे,उस वर्ष होली के रंग फीके रहते थे, लेकिन जिस साल चच्चू आ जाते थे उस साल होली का मज़ा कई गुना बढ़ जाता था!
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होली के चटक रंग, भंग की तरंग एवं बच्चों की हुड़दंग के साथ हमारी टोली ऐसा समा बांधती थी कि बूढ़ी हो चुकी धड़कनों में भी युवा अरमान मचल उठते थे.. वसंत की आहट आते ही गंवई लोगों के जेहन में होली की हुड़दंग की तस्वीर उभरने लगती थी,चौपालों में ढोल की थाप व मजीरों की झनझनाहट के बीच होली खेलयं रघुवीरा अवध में,और होली है..जैसे गीत गूंजने लगते थे। चौपाल में गूंजते होली गीतों को सुनने के लिए घर की बहुएं, भौजाइयां घूंघट के पट के भीतर मुस्कुराते हुए बाहर ड्योढ़ी तक आती थीं। भौजाइयों को देख जहां युवा मन से गीत की तरंग फूटती, वहीं चौपाल में बैठे बाबा अपने मूंछों को ताव दे फागुनी गीत के सुर को धार देते। चौपाल में किया गया उनका हर मजाक 'फागुन में बाबा देवर लागैं' की तर्ज पर क्षम्य हो जाते थे।
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लेकिन अब यह गुजरे जमाने की बात रही।शहर की आपाधापी और भागमदौड़ से सनी हवाएं गावों की मदमस्त हवाओं में इस कदर घुल गयी हैं की गांव की होली के नैन नक्श बदल गए हैं...होली की परंपरा विलुप्त होने की कगार पर है। अब होलिहार शहर आ गए हैं..नौकरी करने लगे हैं... अब फागुन का पूरा माह बीत जाता है..लेकिन किसी गांव में न तो ढोलक की थाप सुनायी देती है और न ही मजीरों और झांझ की मधुर झनकार। हम भी बाहर निकलकर होली की हुड़दंग में शामिल होने के बजाय घर में सीडी प्लेयर से होली के मन पसंद फिल्मी व भोजपुरी गीत सुनकर और फिल्म देखकर होली की परंपरा निभा रहे हैं.. तो भइया हमारी तरफ से आपको ब्लॉग के जरिए ही सही,लोकिन शहरी होली की ढेर सारी शुभकामनाएं।
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