मंगलवार, 30 जुलाई 2013

तीस साल का इतिहास

तीन, साढ़े तीन दशक !!!! बहुत लम्बा समय होता है यह..एक पूरी जन्मी पीढी स्वयं जनक बन जाती है इस अंतराल में.चालीस से अस्सी बसंत गुजार चुके किसी से पूछिए कि इस अंतराल में क्या क्या बदला देखा उन्होंने..समय की रफ़्तार की वे बताएँगे..परन्तु कई बार कुछ चीजों को देख प्रवाह और परिवर्तन की यह बात एकदम गलत और झूठी लगने लगती है.लगता है इस क्षेत्र विशेष में तो कुछ भी नहीं बदला.यहाँ आकर घड़ी की सुइयां एकदम स्थिर हो टिक टिक कर चलने ,गुजरने का केवल भ्रम दे रही हैं..
लगभग तीन दशक पहले मूर्धन्य व्यंगकार श्री शरद जोशी जी ने समय के उस टुकड़े को कलमबद्ध किया था अपने आलेख "तीस साल का इतिहास" में जो उनकी पुस्तक " जादू की सरकार" में संकलित है..कईयों ने पढ़ा होगा इसे, पर मैं अस्वस्त हूँ कि इसका पुनर्पाठ किसी को भी अप्रिय न लगेगा ...प्रस्तुत है श्री शरद जोशी जी द्वारा लिखित उनकी पुस्तक "जादू की सरकार" का आलेख " तीस साल का इतिहास " जिसे पढ़कर बस यही लगता है कि राजनीति में कभी कुछ नहीं बदलता,चाहे समय कितना भी बदल जाए..
"तीस साल का इतिहास"

कांग्रेस को राज करते करते तीस साल बीत गए . कुछ कहते हैं , तीन सौ साल बीत गए . गलत है .सिर्फ तीस साल बीते . इन तीस सालों में कभी देश आगे बढ़ा , कभी कांग्रेस आगे बढ़ी . कभी दोनों आगे बढ़ गए, कभी दोनों नहीं बढ़ पाए .फिर यों हुआ कि देश आगे बढ़ गया और कांग्रेस पीछे रह गई. तीस सालों की यह यात्रा कांग्रेस की महायात्रा है. वह खादी भंडार से आरम्भ हुई और सचिवालय पर समाप्त हो गई.

पुरे तीस साल तक कांग्रेस हमारे देश पर तम्बू की तरह तनी रही, गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही, बर्फ सी जमी रही. पुरे तीस साल तक कांग्रेस ने देश में इतिहास बनाया, उसे सरकारी कर्मचारियों ने लिखा और विधानसभा के सदस्यों ने पढ़ा. पोस्टरों ,किताबों ,सिनेमा की स्लाइडों, गरज यह है कि देश के जर्रे-जर्रे पर कांग्रेस का नाम लिखा रहा. रेडियो ,टीवी डाक्यूमेंट्री , सरकारी बैठकों और सम्मेलनों में, गरज यह कि दसों दिशाओं में सिर्फ एक ही गूँज थी और वह कांग्रेस की थी. कांग्रेस हमारी आदत बन गई. कभी न छुटने वाली बुरी आदत. हम सब यहाँ वहां से दिल दिमाग और तोंद से कांग्रेसी होने लगे. इन तीस सालों में हर भारतवासी के अंतर में कांग्रेस गेस्ट्रिक ट्रबल की तरह समां गई.
जैसे ही आजादी मिली कांग्रेस ने यह महसूस किया कि खादी का कपड़ा मोटा, भद्दा और खुरदुरा होता है और बदन बहुत कोमल और नाजुक होता है. इसलिए कांग्रेस ने यह निर्णय लिया कि खादी को महीन किया जाए, रेशम किया जाए, टेरेलीन किया जाए. अंग्रेजों की जेल में कांग्रेसी के साथ बहुत अत्याचार हुआ था. उन्हें पत्थर और सीमेंट की बेंचों पर सोने को मिला था. अगर आजादी के बाद अच्छी क्वालिटी की कपास का उत्पादन बढ़ाया गया, उसके गद्दे-तकिये भरे गए. और कांग्रेसी उस पर विराज कर, टिक कर देश की समस्याओं पर चिंतन करने लगे. देश में समस्याएँ बहुत थीं, कांग्रेसी भी बहुत थे.समस्याएँ बढ़ रही थीं, कांग्रेस भी बढ़ रही थी. एक दिन ऐसा आया की समस्याएं कांग्रेस हो गईं और कांग्रेस समस्या हो गई. दोनों बढ़ने लगे.
पुरे तीस साल तक देश ने यह समझने की कोशिश की कि कांग्रेस क्या है? खुद कांग्रेसी यह नहीं समझ पाया कि कांग्रेस क्या है? लोगों ने कांग्रेस को ब्रह्म की तरह नेति-नेति के तरीके से समझा. जो दाएं नहीं है वह कांग्रेस है.जो बाएँ नहीं है वह कांग्रेस है. जो मध्य में भी नहीं है वह कांग्रेस है. जो मध्य से बाएँ है वह कांग्रेस है. मनुष्य जितने रूपों में मिलता है, कांग्रेस उससे ज्यादा रूपों में मिलती है. कांग्रेस सर्वत्र है. हर कुर्सी पर है. हर कुर्सी के पीछे है. हर कुर्सी के सामने खड़ी है. हर सिद्धांत कांग्रेस का सिद्धांत है है. इन सभी सिद्धांतों पर कांग्रेस तीस साल तक अचल खड़ी हिलती रही.

तीस साल का इतिहास साक्षी है कांग्रेस ने हमेशा संतुलन की नीति को बनाए रखा. जो कहा वो किया नहीं, जो किया वो बताया नहीं,जो बताया वह था नहीं, जो था वह गलत था. अहिंसा की नीति पर विश्वास किया और उस नीति को संतुलित किया लाठी और गोली से. सत्य की नीति पर चली, पर सच बोलने वाले से सदा नाराज रही.पेड़ लगाने का आन्दोलन चलाया और ठेके देकर जंगल के जंगल साफ़ कर दिए. राहत दी मगर टैक्स बढ़ा दिए. शराब के ठेके दिए, दारु के कारखाने खुलवाए; पर नशाबंदी का समर्थन करती रही. हिंदी की हिमायती रही अंग्रेजी को चालू रखा. योजना बनायी तो लागू नहीं होने दी. लागू की तो रोक दिया. रोक दिया तो चालू नहीं की. समस्याएं उठी तो कमीशन बैठे, रिपोर्ट आई तो पढ़ा नहीं. कांग्रेस का इतिहास निरंतर संतुलन का इतिहास है. समाजवाद की समर्थक रही, पर पूंजीवाद को शिकायत का मौका नहीं दिया. नारा दिया तो पूरा नहीं किया. प्राइवेट सेक्टर के खिलाफ पब्लिक सेक्टर को खड़ा किया, पब्लिक सेक्टर के खिलाफ प्राइवेट सेक्टर को. दोनों के बीच खुद खड़ी हो गई . तीस साल तक खड़ी रही. एक को बढ़ने नहीं दिया.दूसरे को घटने नहीं दिया.आत्मनिर्भरता पर जोर देते रहे, विदेशों से मदद मांगते रहे. 'यूथ' को बढ़ावा दिया, बुड्द्धों को टिकेट दिया. जो जीता वह मुख्यमंत्री बना, जो हारा सो गवर्नर हो गया. जो केंद्र में बेकार था उसे राज्य में भेजा, जो राज्य में बेकार था उसे उसे केंद्र में ले आए. जो दोनों जगह बेकार थे उसे एम्बेसेडर बना दिया. वह देश का प्रतिनिधित्व करने लगा.

एकता पर जोर दिया आपस में लड़ाते रहे. जातिवाद का विरोध किया, मगर अपनेवालों का हमेशा ख्याल रखा. प्रार्थनाएं सुनीं और भूल गए. आश्वासन दिए, पर निभाए नहीं. जिन्हें निभाया वे आश्वश्त नहीं हुए. मेहनत पर जोर दिया, अभिनन्दन करवाते रहे. जनता की सुनते रहे अफसर की मानते रहे.शांति की अपील की, भाषण देते रहे. खुद कुछ किया नहीं दुसरे का होने नहीं दिया. संतुलन की इन्तहां यह हुई कि उत्तर में जोर था तब दक्षिण में कमजोर थे. दक्षिण में जीते तो उत्तर में हार गए. तीस साल तक पुरे, पुरे तीस साल तक, कांग्रेस एक सरकार नहीं, एक संतुलन का नाम था. संतुलन, तम्बू की तरह तनी रही,गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही बर्फ सी जमी रही पुरे तीस साल तक.
कांग्रेस अमर है. वह मर नहीं सकती. उसके दोष बने रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आएँगे. जब तक पक्षपात ,निर्णयहीनता ढीलापन, दोमुंहापन, पूर्वाग्रह , ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा और लालच कायम है, इस देश से कांग्रेस को कोई समाप्त नहीं कर सकता. कांग्रेस कायम रहेगी. दाएं, बाएँ, मध्य, मध्य के मध्य, गरज यह कि कहीं भी किसी भी रूप में आपको कांग्रेस नजर आएगी. इस देश में जो भी होता है अंततः कांग्रेस होता है. जनता पार्टी भी अंततः कांग्रेस हो जाएगी. जो कुछ होना है उसे आखिर में कांग्रेस होना है. तीस नहीं तीन सौ साल बीत जाएँगे, कांग्रेस इस देश का पीछा नहीं छोड़ने वाली...
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साभार, व्यंगकार श्री शरद जोशी जी के संकलन "जादू की सरकार" के "तीस साल का इतिहास" से !!!

तीस साल का इतिहास

तीन, साढ़े तीन दशक !!!! बहुत लम्बा समय होता है यह..एक पूरी जन्मी पीढी स्वयं जनक बन जाती है इस अंतराल में.चालीस से अस्सी बसंत गुजार चुके किसी से पूछिए कि इस अंतराल में क्या क्या बदला देखा उन्होंने..समय की रफ़्तार की वे बताएँगे..परन्तु कई बार कुछ चीजों को देख प्रवाह और परिवर्तन की यह बात एकदम गलत और झूठी लगने लगती है.लगता है इस क्षेत्र विशेष में तो कुछ भी नहीं बदला.यहाँ आकर घड़ी की सुइयां एकदम स्थिर हो टिक टिक कर चलने ,गुजरने का केवल भ्रम दे रही हैं..
लगभग तीन दशक पहले मूर्धन्य व्यंगकार श्री शरद जोशी जी ने समय के उस टुकड़े को कलमबद्ध किया था अपने आलेख "तीस साल का इतिहास" में जो उनकी पुस्तक " जादू की सरकार" में संकलित है..कईयों ने पढ़ा होगा इसे, पर मैं अस्वस्त हूँ कि इसका पुनर्पाठ किसी को भी अप्रिय न लगेगा ...प्रस्तुत है श्री शरद जोशी जी द्वारा लिखित उनकी पुस्तक "जादू की सरकार" का आलेख " तीस साल का इतिहास " जिसे पढ़कर बस यही लगता है कि राजनीति में कभी कुछ नहीं बदलता,चाहे समय कितना भी बदल जाए..
"तीस साल का इतिहास"

कांग्रेस को राज करते करते तीस साल बीत गए . कुछ कहते हैं , तीन सौ साल बीत गए . गलत है .सिर्फ तीस साल बीते . इन तीस सालों में कभी देश आगे बढ़ा , कभी कांग्रेस आगे बढ़ी . कभी दोनों आगे बढ़ गए, कभी दोनों नहीं बढ़ पाए .फिर यों हुआ कि देश आगे बढ़ गया और कांग्रेस पीछे रह गई. तीस सालों की यह यात्रा कांग्रेस की महायात्रा है. वह खादी भंडार से आरम्भ हुई और सचिवालय पर समाप्त हो गई.

पुरे तीस साल तक कांग्रेस हमारे देश पर तम्बू की तरह तनी रही, गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही, बर्फ सी जमी रही. पुरे तीस साल तक कांग्रेस ने देश में इतिहास बनाया, उसे सरकारी कर्मचारियों ने लिखा और विधानसभा के सदस्यों ने पढ़ा. पोस्टरों ,किताबों ,सिनेमा की स्लाइडों, गरज यह है कि देश के जर्रे-जर्रे पर कांग्रेस का नाम लिखा रहा. रेडियो ,टीवी डाक्यूमेंट्री , सरकारी बैठकों और सम्मेलनों में, गरज यह कि दसों दिशाओं में सिर्फ एक ही गूँज थी और वह कांग्रेस की थी. कांग्रेस हमारी आदत बन गई. कभी न छुटने वाली बुरी आदत. हम सब यहाँ वहां से दिल दिमाग और तोंद से कांग्रेसी होने लगे. इन तीस सालों में हर भारतवासी के अंतर में कांग्रेस गेस्ट्रिक ट्रबल की तरह समां गई.
जैसे ही आजादी मिली कांग्रेस ने यह महसूस किया कि खादी का कपड़ा मोटा, भद्दा और खुरदुरा होता है और बदन बहुत कोमल और नाजुक होता है. इसलिए कांग्रेस ने यह निर्णय लिया कि खादी को महीन किया जाए, रेशम किया जाए, टेरेलीन किया जाए. अंग्रेजों की जेल में कांग्रेसी के साथ बहुत अत्याचार हुआ था. उन्हें पत्थर और सीमेंट की बेंचों पर सोने को मिला था. अगर आजादी के बाद अच्छी क्वालिटी की कपास का उत्पादन बढ़ाया गया, उसके गद्दे-तकिये भरे गए. और कांग्रेसी उस पर विराज कर, टिक कर देश की समस्याओं पर चिंतन करने लगे. देश में समस्याएँ बहुत थीं, कांग्रेसी भी बहुत थे.समस्याएँ बढ़ रही थीं, कांग्रेस भी बढ़ रही थी. एक दिन ऐसा आया की समस्याएं कांग्रेस हो गईं और कांग्रेस समस्या हो गई. दोनों बढ़ने लगे.
पुरे तीस साल तक देश ने यह समझने की कोशिश की कि कांग्रेस क्या है? खुद कांग्रेसी यह नहीं समझ पाया कि कांग्रेस क्या है? लोगों ने कांग्रेस को ब्रह्म की तरह नेति-नेति के तरीके से समझा. जो दाएं नहीं है वह कांग्रेस है.जो बाएँ नहीं है वह कांग्रेस है. जो मध्य में भी नहीं है वह कांग्रेस है. जो मध्य से बाएँ है वह कांग्रेस है. मनुष्य जितने रूपों में मिलता है, कांग्रेस उससे ज्यादा रूपों में मिलती है. कांग्रेस सर्वत्र है. हर कुर्सी पर है. हर कुर्सी के पीछे है. हर कुर्सी के सामने खड़ी है. हर सिद्धांत कांग्रेस का सिद्धांत है है. इन सभी सिद्धांतों पर कांग्रेस तीस साल तक अचल खड़ी हिलती रही.

तीस साल का इतिहास साक्षी है कांग्रेस ने हमेशा संतुलन की नीति को बनाए रखा. जो कहा वो किया नहीं, जो किया वो बताया नहीं,जो बताया वह था नहीं, जो था वह गलत था. अहिंसा की नीति पर विश्वास किया और उस नीति को संतुलित किया लाठी और गोली से. सत्य की नीति पर चली, पर सच बोलने वाले से सदा नाराज रही.पेड़ लगाने का आन्दोलन चलाया और ठेके देकर जंगल के जंगल साफ़ कर दिए. राहत दी मगर टैक्स बढ़ा दिए. शराब के ठेके दिए, दारु के कारखाने खुलवाए; पर नशाबंदी का समर्थन करती रही. हिंदी की हिमायती रही अंग्रेजी को चालू रखा. योजना बनायी तो लागू नहीं होने दी. लागू की तो रोक दिया. रोक दिया तो चालू नहीं की. समस्याएं उठी तो कमीशन बैठे, रिपोर्ट आई तो पढ़ा नहीं. कांग्रेस का इतिहास निरंतर संतुलन का इतिहास है. समाजवाद की समर्थक रही, पर पूंजीवाद को शिकायत का मौका नहीं दिया. नारा दिया तो पूरा नहीं किया. प्राइवेट सेक्टर के खिलाफ पब्लिक सेक्टर को खड़ा किया, पब्लिक सेक्टर के खिलाफ प्राइवेट सेक्टर को. दोनों के बीच खुद खड़ी हो गई . तीस साल तक खड़ी रही. एक को बढ़ने नहीं दिया.दूसरे को घटने नहीं दिया.आत्मनिर्भरता पर जोर देते रहे, विदेशों से मदद मांगते रहे. 'यूथ' को बढ़ावा दिया, बुड्द्धों को टिकेट दिया. जो जीता वह मुख्यमंत्री बना, जो हारा सो गवर्नर हो गया. जो केंद्र में बेकार था उसे राज्य में भेजा, जो राज्य में बेकार था उसे उसे केंद्र में ले आए. जो दोनों जगह बेकार थे उसे एम्बेसेडर बना दिया. वह देश का प्रतिनिधित्व करने लगा.

एकता पर जोर दिया आपस में लड़ाते रहे. जातिवाद का विरोध किया, मगर अपनेवालों का हमेशा ख्याल रखा. प्रार्थनाएं सुनीं और भूल गए. आश्वासन दिए, पर निभाए नहीं. जिन्हें निभाया वे आश्वश्त नहीं हुए. मेहनत पर जोर दिया, अभिनन्दन करवाते रहे. जनता की सुनते रहे अफसर की मानते रहे.शांति की अपील की, भाषण देते रहे. खुद कुछ किया नहीं दुसरे का होने नहीं दिया. संतुलन की इन्तहां यह हुई कि उत्तर में जोर था तब दक्षिण में कमजोर थे. दक्षिण में जीते तो उत्तर में हार गए. तीस साल तक पुरे, पुरे तीस साल तक, कांग्रेस एक सरकार नहीं, एक संतुलन का नाम था. संतुलन, तम्बू की तरह तनी रही,गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही बर्फ सी जमी रही पुरे तीस साल तक.
कांग्रेस अमर है. वह मर नहीं सकती. उसके दोष बने रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आएँगे. जब तक पक्षपात ,निर्णयहीनता ढीलापन, दोमुंहापन, पूर्वाग्रह , ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा और लालच कायम है, इस देश से कांग्रेस को कोई समाप्त नहीं कर सकता. कांग्रेस कायम रहेगी. दाएं, बाएँ, मध्य, मध्य के मध्य, गरज यह कि कहीं भी किसी भी रूप में आपको कांग्रेस नजर आएगी. इस देश में जो भी होता है अंततः कांग्रेस होता है. जनता पार्टी भी अंततः कांग्रेस हो जाएगी. जो कुछ होना है उसे आखिर में कांग्रेस होना है. तीस नहीं तीन सौ साल बीत जाएँगे, कांग्रेस इस देश का पीछा नहीं छोड़ने वाली...
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साभार, व्यंगकार श्री शरद जोशी जी के संकलन "जादू की सरकार" के "तीस साल का इतिहास" से !!!

सोमवार, 15 जुलाई 2013

भूख बड़ी ज़ालिम होती है

1-
भूख बड़ी ज़ालिम होती है
वो...जो कल तक
अच्छा खासा इंसान था
मासिक धर्म में
इस्तेमाल किए गए
कपड़े की तरह
सड़क पर फेंका गया
पेट की अंतड़ियों ने
भीतर भूगोल बना लिया
और
वो अच्छा खासा इंसान
एक दाने के लिए सड़क पर
यूं बैठ गया
जैसे बैठ जाता है
मुर्दा चांद
किसी शोकाकुल छत पर
निरर्थक होकर...

2

भूख बहुत ज़ालिम होती है
उसमें न कसक होती है
न लचक होती है
मैंने सोचा
देखकर उस पागल इंसान को
जैसे देख रहा हूं
भूख से बिलखते
हिंदुस्तान को....

3

भूख बहुत ज़ालिम होती है
ये जानती है
हमारी सरकार भी
इसलिए
कभी वोट की राजनीति करती है
कभी पेट की
इस बार पेट का पाखंड है
खाना चाहिए तो लगाना होगा
पंजे पर ठप्पा
वरना भूख का दंड है
सड़क पर आओगे
और
कुत्ते की मौत मारे जाओगे....

...........................

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

इलाहाबाद के अमरुद

अमे यार इलाहाबाद के अमरुद की बहुत याद आय रही है, यह समय बागिन में अमरुद खाय लायक होई गा होइहैं। रामबाग में जब हम लोग सनीमा देखै जात रहे ललका अमरुद खाए का आनंद आवत रहा। हियाँ ससुर दुई साल होई गा इलाहाबाद के अमरुद का दर्शन नहीं कई पावा। बरेली आई के जिनगी क बहुत अनमोल यादिन सतावत थीन। एही बार माघमेला में चांस लगाई के कौनिउ सूरत में इलाहाबाद पहुंचे का है.....संगम की रेती का मजा और अमरुद का स्वाद बहुत याद आवत अहै....

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

मुझे शर्म नहीं आती....


मेरे गांव में एक कहावत कही जाती है,सौ सौ जूता खाय तमाशा घुस के देखयये कहवत उन लोगों के लिए कही जाती है जो बेशर्मियत के चुल्लू में परिवार रिश्तेदार  सहित नहाते हैं और बगैर डूबे वापस निकल आते हैं...इन लोगों को देखकर मुझे शर्म नहीं आतीहां मुझे बिलकुल भी शर्म नहीं आती...और शर्म न आने की सबसे बड़ी वजह है मेरा देश...भारत हिंदुस्तान आर्यावर्त और इंडिया के अलावा इस देश का एक और नाम है और वो नाम है घोटालिस्तान...इस घोटालिस्तान में ऐसे ऐसे घोटालाबाज पैदा हुए हैं,जिन्होंने हरामखोरियत की पराकाष्ठा पर जमकर चहलकदमी की है...
इस देश ने एक तरफ जहां ददुआ,ठोकिया,विरप्पन,दाउद,छोटा राजन और सलेम जैसे आंख के तारे पैदा किए हैं तो दूसरी तरफ ए.राजा,अशोक चव्हाण.लालू यादव,मायावती जैसे नेता भी पैदा किए हैं जो देश के दिल में पेसमेकर बने बैठे हैं,और देश की धड़कन को कंट्रोल कर रहें हैं...अब इतने महान लोगों को शर्म नहीं आती तो इन्हें देखकर मुझे भी शर्म नहीं आती...जब गरीबों के हक की भूख बाजार में नीलाम करने वाले सौदागरों को शरम नहीं आती... जब गरीबों क अनाज को घोटालेबाजों ने अपना निवाला बना लिया....जो अनाज पीडीएस के जरिए गरीबों में बांटने के लिए भेजा गया था उसे घोटालेबाजों ने बांग्लादेश और नेपाल में बेच दिया...जो अनाज फूड फॉर वर्क के तहत गरीबों का पेट भरने के लिए था उसे उत्तर प्रदेश के नेता, बाबू मिलकर गटक गए....जब उन्हें शर्म नहीं आई तो मुझे शर्म क्यों आएगी...जब महाराष्ट्र सरकार के भ्रष्ट नेताओं को शर्म नहीं आई जिन्होंने देश पर प्राण त्याग देने वाले शहीदों के हक पर अपनी बपौती बना ली, जब उन्हें शर्म नहीं आई तो मुझे शर्म क्यों आएगी... महाराष्ट्र सरकार के भ्रष्ट नेताओं ने कारगिल युद्ध में शहीद हुए जवानों को इस घोटाले की मार्फत अपने खास अंदाज में श्रद्धांजलि दी है। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, खाद्यान्न घोटाला और राष्ट्रमंडल खेल घोटाला तो वर्तमान यूपीए सरकार की उपलब्धियों में शुमार हैं ही,इसके अलावा पिछले एक दशक में हमने प्रसिद्ध केतन पारिख घोटाले, मधु कोड़ा घोटाले, चारा घोटाले, आईपीएल घोटाले, सीडब्ल्यूजी घोटाले से दो चार हुए हैं...इन घोटालों में इतने रुपयों का हेर फेर हुआ है कि मैं गिनती नहीं लिख सकता...या यूं कहें कि मेरी गणित इतनी कमजोर है कि मैं हेजीटेट हो रहा हूं लिखने में कि कहीं एकाद शून्य कम न लिख दूं...
मौजूदा दौर को देखकर ऐसा कहा जा सकता है कि नैतिकता ताक पर रख दी गई है। इस वक्त जो नैतिकता पर हावी है या फिर कहे की शक्तिमान है थ्री-पी (3P) यानी पॉवर, पैसा और पॉलिटिक्स। वर्तमान समय में थ्री-पी शक्तिशाली है, ऐसे में जनसरोकार की बाते बेईमानी और बौनी नजर आती है। जो शक्तिशाली होता है वही इतिहास लिखता है और नायक, नायिका और खलनायक वही तय करता है। इसलिए सर्वमान्य नायकों-नायिकाओं की तलाश इतिहास में नहीं करनी चाहिए। लेकिन देश में भ्रष्टाचार का जो आलम है ऐसे वक्त में जेपी (जय प्रकाश नारायण) की याद आती है। 1977 में सत्ता के खिलाफ चलाया गया आंदोलन सिर्फ इमरजेंसी के खिलाफ ही नहीं था, बल्कि इस आंदोलन को जनता का जनसमर्थन मिला क्योंकि यह आंदोलन सत्ता में मौजूद भ्रष्टाचार के खिलाफ भी था।
थोड़ा बोरिंग लगेगा लेकिन एक नजर आजादी के बाद से अबतक के बड़े घोटालों पर डाल लेते हैं- जीप घोटाला (1948), साइकिल आयात घोटाला (1951), मुंध्रा मैस (1957-58), तेजा लोन (1960), पटनायक मामला (1965), नागरावाला घोटाला (1971), मारूति घोटाला (1976), कुओ ऑयल डील (1976), अंतुले ट्रस्ट (1981), एचडीडब्ल्यू सबमरीन घोटाला (1987), बिटुमेन घोटाला, तांसी भूमि घोटाला, सेंट किट्स केस (1989), अनंतनाग ट्रांसपोर्ट सब्सिडी स्कैम, चुरहट लॉटरी स्कैम, बोफोर्स घोटाला (1986), एयरबस स्कैंडल (1990), इंडियन बैंक घोटाला (1992), हर्षद मेहता घोटाला (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), सिक्योरिटी स्कैम (1992), जैन (हवाला) डायरी कांड (1993), चीनी आयात (1994), बैंगलोर-मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर (1995), जेएमएम सांसद घूसकांड (1995 ), यूरिया घोटाला (1996), संचार घोटाला (1996), चारा घोटाला (1996), यूरिया (1996), लखुभाई पाठक पेपर स्कैम (1996), ताबूत घोटाला (1999) मैच फिक्सिंग (2000), यूटीआई घोटाला, केतन पारेख कांड (2001), बराक मिसाइल डील, तहलका स्कैंडल (2001), होम ट्रेड घोटाला (2002), तेलगी स्टाम्प स्कैंडल (2003), तेल के बदले अनाज कार्यक्रम ( 2005), कैश फॉर वोट स्कैंडल (2008), सत्यम घोटाला (2008),मधुकोड़ा मामला (2008), आदर्श सोसाइटी मामला (2010), कॉमनवेल्थ घोटाला (2010), 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला।          

कभी बाबूओं, नेताओं और कारोबारियों की तिकड़ी गरीबों का हजारों टन अनाज सालों तक उड़ाती रहती है और किसी को भनक तक नहीं लगती. तो कभी अनाज से भरे गोदाम के गोदाम सड़ जाते हैं और किसी को फिक्र नहीं होती... इतना कुछ कहने के बाद अब तो आप समझ ही गए होंगे कि मुझे शर्म क्यों नहीं आती...मुझे आती है सिर्फ एक सोच, जो विवश करती है ये बात सोचने पर कि आखिर क्यों हमारा देश गरीब है...
आपका बेशर्म...।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

तेलंगों का बहुमत



हमारे बूढ़े बुजुर्ग कहा करते थे बड़ाई से डरना चाहिए और किसी के मुंह पर उसकी बड़ाई कदापि न करनी चाहिए, लेकिन आज सब कुछ उलट हो रहा है। बड़ी बड़ी सभाओँ में नेतागणों के अनुज उनके बड़प्पन के बोल गा रहे है, इसके लिए इलाहाबादियों के पास एक स्पेशल शब्द है। चेलागिरी करने वालों को हम इलाहाबादी तेलंग कहते हैं, उसके इस गुण को तेल्लई कहते हैं जिसका मतलब है तेल लगाना। तेल लगाने से तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति का प्रिय बनने की कोशिश में उसकी तारीफों के पुल बांधे जाएं और वो भी बिना सपोर्ट के (इससे ढहने में आसानी रहती है)।
पैदावार बढ़ रही हैः आज तेलंग लोगों की पूरी एक फौज खड़ी हो गई है। जिधर देखो तेलंग पैदा हो रहे हैं, एक लहलहाती फसल खड़ी है, पककर कटने को तैयार, गोदामों में नहीं यह सीधे दिमाग में घुसने को तैयार है। कोई फेसबुक पर तेल लगा रहा है, कोई ट्विटर पर, कोई फोनय पर ठोंके पड़ा है, सब तेल लगाने में तल्लीन हैं। हर कोई इस गुण को अपने में उत्पन्न करना चाहता है और इसकी पैदाइश के बाद इसकी संभाल ऐसे करने में लगा है जैसे नवजात शिशु की देखभाल की जाती है।
बंधुआ तेलंगः जब हम विश्वविद्यालय में पढ़ा करते थे तो वहां शोधार्थियों से बातों ही बातों में पचा चला कि ये लोग शोध कम करते हैं, तेल्लई ज्यादा करना पड़ता है और इनके गाइड प्रोफेसर्स ने इन्हे बंधुआ तेलंग बना रखा है। वे उनके घरों में सब्जी लातें हैं, बच्चों को ट्यूशन देते हैं, कुछ तो स्कूल भी छोड़ने जाते हैं। ऐसे ही ढेर सारे काम ये लोग अपने गाइड्स के घरों के किया करते थे। यह सब कुछ जानकर बड़ा अटपटा सा लगा। ऐसे बंधुआ तेलंग आपको हर जगह मिलेंगे, सरकारी दफ्तरों, निजी संस्थानों, हर जगह। सरजी की हां में हां मिलाना और सबके सामने सरजी के कारनामों की प्रस्तुति देना इनके कर्तव्य और विशेषाधिकार हैं।
तेंलग नहीं हिजड़े हैः दरअसल जो लोग अपनी इच्छा से तेल्लई का काम नहीं कर रहे, वे तेलंग कम हिजड़े ज्यादा है। इन्हें अपने ऊपर जरा भी विश्वास नहीं होता, अपने काम पर ये भरोसा नहीं करते, तो तेल्लई का माध्यम चुनते हैं कि किसी तरह लक्ष्य की प्राप्ति हो जाए, और एक बार इस तरीके से मिला लक्ष्य इनके तेल्लई को जगा देता है और नशए की तरह लहूं में समा जाता है और ऐसे लोग इसी खुशफहमी में लीन रहते है कि तेल्लई ही हर मर्ज की दवा है, ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा होने के कारण आज बहुमत भी तेल्लई का ही है।
जय हो तेलंगों की।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

दूसरे के हिस्से से सेहत नहीं बनती


जब किसी इंसान को डायबीटीज हो जाती है, तो यही कहता घूमता हैः भाई एड्स हो जाए, कैंसर हो जाए मगर डायबीटीज न हो। सबको पता है कि डायबीटीज क्यों होती है-ज्यादा मिठाई खाने से। कुछ यही हालत अपने इंडिया की भी है (भारत की इसलिए नहीं क्योंकि उसका सपना तो बापू ने देखा था)। सारे के सारे मिठाई खाने में जुटे हैं और खिलानेवाले भी बड़े चाव से खिलाते हैं। फर्क बस इतना है कि किसी को बूंदी का लड्डू मिलता है तो किसी के हिस्से में पेड़ा आता है और जनाब ये मिठाई किसी हलवाई की दुकान पर नहीं मिलती। इसकी पैदाइश तो आरबीआई के घर होती है, लेकिन खाने-खिलाने वाले मौका हाथ लगते ही इसे मिठाई के डिब्बे में बंद कर लेते हैं और बना लिया रिश्वत की मिठाई।

हमारे यहां यह मिठाई खाने का बड़ा चलन है। लालू ने चारा मिठाई खाई, लोग कहते हैं राजीव के जमाने में बहुत लोगों ने बोफोर्स वाली मुठाई खाई, फिर तहलका मिठाई आई, ये सब मिठाइयां तो बड़े लोगों के लिए बनीं थीं। आजकल बहुत लोग कॉमनवेल्थ मिठाई खा रहे हैं। कलमाड़ी भैया तो वर्ल्ड फेम हो गए हैं, मिठाई खाने में। इसा खाने पीने की आदत में किसी को पेट की याद न आई, बेचारा पेट, कितना पचाये, आप तो ठूसे पड़े हैं, लेकिन एक हद होती है मालिक किसी चीज की। पेट कब जवाब दे जाए, कुछ पता नहीं।
हमारे यहां कॉमनवेल्थ शुरू होने में महज कुछ दिन बाकी हैं, कॉमनवेल्थ की मिठाई खाने वालों की बीमारी के बारे में मीडिया ने सारे देश को बताया, बड़ी किरकिरी हुई, फिर सोचा गया इ सब ब्रत रख लेंगे, लेकिन मजाल भैया कि एको दिन मिठाई खाने में नागा हो जाए। बिल्डिंग बनी तो एक उसमें चौड़ाई थोड़ा घटाय के मिठाई मंगवाय लिया, स्टेडिय़म मा घटिया वाली माटी डरनवाएन, जलेबी आई गई। लेकिन मिठाई खाने वाले शायद भूल रहे हैं, कि अगर इसी तरह खाए तो पेट तो जाएगी ही, नाक भी कट जाएगी। ये लोग शायद बीजिंग ओलंपिक भूल रहे हैं। सब की आंखे फटी की फटी रह गईं थीं, चीन की तैयारी और मेहमाननवाजी देखकर, हमारे इहां शायद आंखी न फटे और सब फटी जाए। बर्ड नेस्ट स्टेडियम की तस्वीरे आज भी लोगों के जेहन में ताजा हैं। लेकिन कलमाड़ी जैसे मिठाई प्रेमी भूल गए हैं, इसीलिए तो खाए पड़े हैं, लेकिन अक्टूबर के पहिले हफ्ते में जब थू थू होने लगेगी, तो समझ में आ जाएगा, कि दूसरे का हिस्सा खाने से सेहत नहीं बनती।